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________________ गर्म वचनोद्वार की क्रिया परित्याग कर वीतरागभाव से जो आत्मा को ध्याता है, उसे समाधि संयम, नियम और तप से तथा धर्मध्यान और शुक्लध्यान से जो आत्मा को ध्याता है, उस परम हैं ।। 123 समल-विधप्पहं जो विल परमसमाहि मणति । तेन सुहासहभावणा मुणि सबलवि मेल्लति ॥ प.प्र.2/190 अर्थ : जो समस्त विकल्पों का नाश होना, वही परम समाधि है, इसी से मुनिराज समस्त शुभाशुभ विकल्पों को छोड़ देते हैं | 190 11 युजे समाधिवचनस्य योगसमाधिः ध्यानमित्यनर्थान्तरम् । - रा. वा. 6/9/12/505/27 अर्थ : योग का अर्थ ध्यान और समाधि भी होता है । समेको भावे वर्तते तथा च प्रयोग संगततैलं संगतघृतमित्यर्थं एकीभूतं तैलं एकीभूतं घृतमित्यर्थः । समाधानं मनसः एकाग्रताकरण शुभोपयोगशुद्धे वा । - भग. आरा. वि. 67 / 194 अर्थ : मन को एकाग्र करना, सम शब्द का अर्थ एकरूप करना ऐसा है जैसे घृत संगत हुआ, इत्यादि । मन को शुभोपयोग में अथवा शुद्धोपयोग में एकाग्र करना यह समाधि शब्द का अर्थ समझना । यत्सम्यक्परिणामेषु चित्तस्याधानमनसा । स समाधिरिति ज्ञेयस्मृतिर्वा परमेहिनाम् ॥ म. पु. 21 / 226 - तैल संगत हुआ अर्थ : उत्तम परिणामों में जो चित्त का स्थिर रखना है वही यथार्थ में समाधि या समाधान है अथवा पंचपरमेष्ठियों के स्मरण को समाधि कहते हैं । सामय, स्वास्थ्य, समाधि, योगनिरोध और शुद्धोपयोग ये समाधि के एकार्थवाची नाम हैं। ध्येय और ध्याता का एकीकरण रूप समरसी भाव ही समाधि है । बहिरन्तर्जल्पत्वागलक्षण: योगः स्वरूपे चितनिरोधलवानं समाधिः । स्या. म. 17 / 229 'अर्थ: बहिः और अन्तर्जल्प के त्याग स्वरूप योग है और स्वरूप में चित्त का निरोध करना समाधि है । जैनधर्म में समाधिमरण का बड़ा महत्त्व है और इसे एक परमावश्यक अनुष्ठान माना गया है। जैनाचार्यों का कहना है कि समाधिमरण के द्वारा ही जन्म सफल हो सकता है। यह केवल मुनियों के लिये नहीं वरन् गृहस्थों के लिए भी आवश्यक है। आचार्य प्रवर स्वामी समन्तभद्र इसे तप का एक फल मानते हैं। समाधिमरण के लिये कोई तीर्थक्षेत्र या पुण्यभूमि उत्तम स्थान है। विधिपूर्वक समाधि-साधन के लिए शास्त्रज्ञ प्रभावशाली आचार्य का होना भी जरूरी है। इन्हें Profiकाचार्य कहा जाता है। सल्लेखना की प्रतिज्ञा ले लेने पर पूर्व के संस्कारों के कारण क्षपक का पुनः पुनः विचलित होना संभव है। मध्ये हि पापत्यमामोहादपि योगिनाम् ।
SR No.010142
Book TitleTattvartha Sutra Nikash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRakesh Jain, Nihalchand Jain
PublisherSakal Digambar Jain Sangh Satna
Publication Year5005
Total Pages332
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size20 MB
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