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स्यान), ये साला वेदनीय के आसन हैं।"
यहाँ स्पष्ट है कि साता - असाता दोनों के आसव के कारण विरोधी हैं। अतः दोनों के कार्य भी विरुद्ध हैं। अत: दोनों में स्पष्ट अंतर है। एक दिन है तो दूसरा रात्रि ।
3. बहारंभपरिग्रहत्वं नारकस्यायुषः 116/15/
बहुत आरंभ और परिग्रह से नरकायु (पाप) का आश्रव होता है।
अल्पारंभपरिग्रहत्वं मानुषस्य 116 / 1711
थोड़ा आरंभ और परिग्रह रखने से मनुष्यायु (पुण्य) का आस्रव होता है।
4. योगवक्रता विसंवादनंचाशुभस्य नाम्नः 116 / 2211
मनोयोग, वचनयोग, काययोग की कुटिलता और श्रेयोमार्ग की निंदा करके बुरे मार्ग पर चलने को कहना, जैसे सम्यक्चारित्र और क्रियाओं में प्रवृत्ति करने वालों से कहना कि तुम ऐसा मत करो और ऐसा करो आदि विसंवादन से अशुभ नाम कर्म का आस्रव होता है।
तद्विपरीतं शुभस्य 116/2311
योगों की सरलता और अविसंवादन से शुभ नाम कर्म का आस्रव होता है।
5. हिंसानृतस्तेयाब्रह्मपरिग्रहेभ्यो विरतिर्वतम् ॥17 / 11
हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील, परिग्रह इन पाँच पापों से विरक्त होना व्रत है। यहाँ अंतर स्पष्ट है कि पाँच पापों से उल्टा व्रत (पुण्य) है, यह चारित्र है, मोक्षमार्ग है, भले ही इससे शुभासव होता है। पापों से तो जीव संसार दुःखों में डूबता ही है ।
6. तत्सबैर्यार्थ भावनाः पञ्च पञ्च 117 / 311
इन पाँच व्रतों की स्थिरता हेतु पाँच-पाँच भावनायें हैं ।
इससे प्रकट है कि इन व्रत रूप पुण्य को उपादेय बताया गया है। कहीं भी पापों को स्थिर करने हेतु उपाय उपदिष्ट नहीं किया गया है।
7. हिंसादिष्विहामुत्रापायावद्यदर्शनम् । दुःसमेदवा 117/9,1011
इन पाँच पापों से इस लोक में और परलोक में भय, नाश और निंदा, दुःख प्राप्त होता है। ये दुःख रूप हो हैं, साक्षात् दुःख ही हैं।
8. सद्यशुभायुर्नामगोत्राणि पुण्यम् । अतोऽन्यत्पापम् 118 / 25-611
सातावेदनीय शुभ आयु, शुभ नाम, शुभ गोत्र ये पुण्य प्रकृतियों हैं। इनसे अन्य पाप प्रकृतियाँ हैं । यहाँ पाप और पुण्य के स्वरूप में स्पष्ट अंतर सिद्ध होता है। पुण्य से पाप अन्य है एक नहीं । उपरोक्त उदाहरणों से तस्वार्थ सूत्र में पुण्य-पाप की स्वरूप विषर्वक परस्पर विरोधी मीमांसा है।
यदा तदा सर्वत्र एकांत निश्वयाभासी जनों द्वारा अपने समर्थन में कहा जाता है कि व्रतों को तत्त्वार्थ सूत्र आचार्य उमास्वामी ने सातवें आंसवाधिकार में लिया है, अतः जो आस्रव और बंध के कारण हों, वे न तो उपादेय हैं, न धर्म
में