SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 204
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 148/तस्वार्थस्ना-मिका वर्तमान में तो मोक्षमार्गी सभी गृहस्थ अथवा मुनि सभी अपरमभाव में स्थित हैं। श्रेणी आरोहण नहीं है। अत: सभी व्यवहार नय के द्वारा उपदेश के पात्र हैं। निश्चय नय के विषय की श्रद्धा के साथ व्यवहार नय का प्रयोग ही करने के पुण्य-पाप में अंतर : तत्त्वार्थ सूत्र में संसारी अधःस्थानपतित जीव को उठाकर विभिन्न श्रेणियों के अनुसार मोक्षमार्ग में लगाने का उपदेश है। जब सात तत्व ही व्यवहार नय का विषय हैं, अत: व्यवहार नय की विशिष्ट प्रधानता को लिये हुये यह महाग्रंथ है । इसमें पाप और पुण्य के स्वरूप में स्पष्ट अतर दिखता है। इनमें परस्पर विरोधी भाव दृष्टिगत होता है। जैसे जिसको अमत की पाप्ति नहीं हुई, उसके लिये विष त्याज्य है, दध उपादेय है। उसी प्रकार शुद्धोपयोग की प्राप्ति के अभाव में अशुभ (पाप) हेय है, शुभ (पुण्य) उपादेय है। वर्तमान काल में तो यह ही शरण है। प्रसिद्ध टीकाकार श्री जयचंद छाबड़ा के शब्दों में व्यवहारी जीवों को व्यवहार ही शरण है। प्रसिद्ध ही है, पच परमेष्ठी शरण हैं, यह पराश्रित भाव ही हैं, जो उपादेय हैं और व्यवहार नय का विषय ही हैं। यहाँ तत्त्वार्थ सूत्र कतिपय स्थलों से पुण्य और पाप का अतर स्पष्ट किया जाता है। किसी भी जीवादिक तत्त्वों की दृष्टि से दृष्टव्य है - 1. शुभः पुण्यस्याशुभ: पापस्य ।। 6/31 - आस्रव दो प्रकार का है (एक प्रकार या समान नहीं)। शुभासव और अशुभासव । शुभ योग से अर्थात् पुण्य (मन-वचन-काय के द्वारा) कर्मों से शुभाश्रव होता है और अशुभ योग अर्थात् पापकर्मों से अशुभ या पापासव होता है। पूजा, अचौर्य, ब्रह्मचर्यादि शुभ काययोग हैं । सत्य, हित, मित, प्रिय वचनादि शुभ वचन योग है । अर्हत आदि मे भक्तिभाव, तप में रुचि, शास्त्र की विनय आदि शुभ मनोयोग हैं। हिंसा, झठ, चोरी, मैथन आदि अशुभ काय योग है। असत्य, अप्रिय, अहित, कर्कश, आगमविरुद्ध भाषण आदि अशुभ वचन योग है। हिंसा भाव, ईर्ष्या, निंदा आदि अशुभ मनोयोग हैं। शुभ परिणामों से उत्पन्न मन-वचन-काय की क्रिया को शभयोग और अशभपरिणामो से उत्पन्न योग को अशुभ योग कहते हैं। उपरोक्त से पाप और पुण्य का अतर, विरोधीभाव स्पष्ट नजर आता है। क्या असत्य और सत्य को समान माना जा सकता है, कभी नहीं। 2. सबसवेरे 18/81 वेदनीय कर्म दो प्रकार का है- 1. साता और 2. असाता । जिसके उदय से सुख शांति के साधन प्राप्त हो वह साता और जिसके उदय से दुःख, शोक के साधन प्राप्त हों, वह असाता वेदनीय है। इनके आश्रव के कारणों का उल्लेख करते हुए कहा गया है । दुषणोकतापाकन्दनवपरिवेवनान्यात्मपरोभवस्थानाम्पसदेवस्य ।।6/11|| निज सथा पर दोनों के संबंध में किए जाने वाला दुःख, शोक, ताप, आक्रन्दत (रुदन), वध, और परिदेवन (दया का उत्पादक रुदन), असाता वेदनीय के आसव के कारण हैं। ... अपकापावाललगवामाशियोगः जाति पोचमिवि सोचस्म 116/1211 . समस्त प्राणियों के प्रति दयाभाव, व्रती अनुकंपा, दान, सरागसंगम, कषायों का शमन और संतोष (लोभ
SR No.010142
Book TitleTattvartha Sutra Nikash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRakesh Jain, Nihalchand Jain
PublisherSakal Digambar Jain Sangh Satna
Publication Year5005
Total Pages332
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy