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पुण्य-पाप के स्वरूप पर प्रकाश डालते हैं -
पुण्य : "पुनात्यात्मान पूयतेऽनेन वा इति पुण्य अथवा बेनात्मा पवित्रोक्रियते तत्पुष्य
• अर्थात् जो आत्मा को पवित्र करता है अथवा जिससे आत्मा पवित्र होता है, वह पुण्य है। चूंकि आत्मा को पवित्र, शुद्ध, मुक्त करना अभीष्ट है, अंतः पुण्य उपाय है, अतः वह उपादेय है। मंजिल हेतु मार्ग उपादेय ही है, भले ही मंजिल की प्राप्ति होने पर मार्ग छूटता है, उसका अस्तित्वमंजिल में नहीं है। पुण्य को मंगल और शुभ भी कहते हैं। पुण्य परिणामों को विशुद्ध परिणाम भी कहा है।
पाप :- "यद् पत्नाति तद् पाप"
अर्थात् जो पतन कराता है वह पाप है।
"पाति रक्षति आत्मानं शुभात् इति पाप"
अर्थात् जो शुभ से बचाता है, दूर रखता है, वह पाप है। यह सर्वथा हेय है। यह तो उपाय या मार्ग ही नहीं है, इससे मोक्षरूपी मंजिल नहीं मिल सकती। इसे संक्लेश, अशुभ, अमंगल या अहित भी कहते हैं ।
पुण्य के पर्यायवाची :- पुण्य, सुकृत, ऊ रधवदन, भाग्य, बहिर्मुख, धर्म ।
जैसे सामान्य पुद्गल की दृष्टि से तो दूध और विष दोनों पुद्गल हैं। पाप और पुण्य की एकता उसी प्रकार द्रव्य कर्म बंध सामान्य एवं कर्मज भाव सामान्य की दृष्टि से अध्यात्म ग्रंथों में पाप और पुण्य की समानता का निरूपण आचार्यों ने किया है। यथा
कम्मसु कुसील सुहकम्मं चावि जाणह सुसील । तह fer होदि सुसीलं जं संसारं पवेसेदि ॥ सोवणिर्यपि णिवलं बंधदि कालाबर्स बहेव पुरिसार्ण। एवं संयदि जीवं सुहासु च कदंकम्म | ( समयसार )
तुम अशुभ कर्म को कुशील और शुभ कर्म को सुशील जानते हो, किंतु शुभ कर्म सुशील कैसे हो सकता है, जो जीव को संसार में प्रवेश कराता है। जैसे लोहे की बेड़ी के समान सोने की बेड़ी भी पुरुष को बांधती है। उसी प्रकार शुभ और अशुभ किये हुये कर्म जीव को बाँधते हैं।
यहाँ यह ज्ञातव्य है कि यह शुद्ध नय, निश्चयनय कथन शुद्धोपयोग, वीतराग अवस्था अथवा निर्विकल्प ध्यान, निश्चय - अभेद रत्नत्रय की अपेक्षा है तथा इसका पात्र वीतराग चर्या का धारी मुनि है। यह समयसार में अनेक स्थलों से ज्ञात होता है। दृष्टव्य है .
atteriesो परमभाव दरिसीहि ।
ववार देबिदायुन जे दु अपरमेडिया भावे ॥ समर्थप्राभृत / 12
जो परमभावदर्शी हैं ( सातिशय अप्रमत्त से ऊ पर) उनको शुद्ध द्रव्य का कथन करने वाला शुद्धमय ज्ञातव्य है, किंतु अपरम भाव में स्थित (गृहस्थ की अपेक्षा पंचम गुणस्थान तक तथा मुनि की अपेक्षा छठे व सातने स्वस्थान अप्रमत
में) है, वे व्यवहार नय के द्वारा उपदेश के पात्र हैं
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