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की समवसरण रूप अजीव द्रव्य, अजीव शब्द रूप जिनवाणी, शुचि, ज्ञान, ज्ञान, संयम, उपकरण आदि तथा ऐसे पवित्र पुलद्रव्य जो जीव के पुण्यमार्ग में सहायक हैं तथा तीर्थङ्कर व अन्य पुण्य कर्म प्रकृतियाँ आदि ।
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पाप अजीव पुगल द्रव्यकर्म की पाप प्रकृतियाँ, हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील, परिग्रह आदि पापीकरण । अंधकार व अपशकुन द्रव्य ।
3. आसव : पुण्यास्रव जीवासव । शुभभाव ।
ब. शुभ तीर्थंकर, मनुष्य गति, देवायु आदि पुण्य प्रकृतियों का आश्रव द्रव्याश्रव । शुभयोग से होने वाला आश्रव । पापास्रव अ. हिंसा आदि पंच पाप भाव, सप्त व्यसन, मिथ्यात्व, अविरति, तीव्रकषायरूप संक्लेश परिणाम, अशुभ योग व अशुभ भाव आदि पाप भावाश्रव ।
ब. घातिया कर्मों की प्रकृतियाँ, नीच गोत्र, सातावेदनीय, नरकायु आदि पाप प्रकृतियों का आश्रव, पाप द्रव्याश्रव ।
4. बंध : पुण्यबंध जीव के जिन भावों से पुण्य प्रकृतियों का बध होता है वे भावबध तथा सातावेदनीय आदि पुण्यप्रकृतियों का आत्मप्रदेशों के साथ अन्योन्यप्रवेशणरूप द्रव्य बध ।
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अ. पूजा, भक्ति, व्रत, संयम, मैत्री, प्रमोद, करुणा, माध्यस्थ आदि भावाश्रव,
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पाप बंध - असातावेदनीय आदि पाप प्रकृतियों के बध के योग्य जीव परिणामरूप भावबध, नरकायु, असाता आदि पाप प्रकृतियों का जीव प्रदेशों से नीर-क्षीरवत् बंध ।
तत्वार्थसूत्र अध्याय 8 में उल्लिखित है- द्विद्यशुभायुर्नामगोत्राणि पुण्य ||25|| मतोऽन्यत्पाप 112611
5. संबर: पाप संवर- पाप कर्म के सवर के कारण जीव भाव, भाव सवर तथा पाप प्रकृतियो का आश्रव निरोध यह अभीष्ट है ।
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पुण्य संवर पुण्य कर्म प्रकृतियों के आश्रव निरोध के कारणरूप जीव के पाप परिणाम पुण्य भावसंवर कहलाते हैं। इनके द्वारा पुण्य प्रकृतियों का निरोध होता है, वह पुण्य द्रव्य सवर कहलाता है। सविकल्प अवस्था की दृष्टि से यह हेय है।
6. निर्जरा: पाप निर्जरा पाप कर्मों की निर्जरा रूप द्रव्य निर्जरा । कारणरूप पाप परिणामो की हानि पाप भाव निर्जरा। यह शुभोपयोग से होती है।
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पुण्य निर्जरा पुण्य कर्मों की निर्जरा के कारण भाव निर्जरा शुद्धोपयोग, पुण्य कर्म प्रकृतियो की स्थिति - अनुभाग हानि पुण्यकर्म निर्जरा ।
7. मोक्ष : पुण्य पाप से रहित है। यह रत्नत्रय का फल है जीवन मुक्त या सिद्ध परमात्मा शुद्ध, परसयोग से रहित हैं, अतः पवित्र हैं। अतः उन्हें पुण्य सज्ञा से अभिहित किया जा सकता है। इसी कारण से सहस्रनाम स्तोत्र में इन्हे पुण्य से संबोधित किया गया है।
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सस्वार्थ सूत्र के छठे, सातवे, आठवे और नये अधिकार में उपरोक्त विवेचन को हम दृष्टियत कर सकते हैं। वहाँ जीव, अजीव, आधव, बंध, सवर, निर्जरा इन छह तत्त्वों का पुण्य और पाप के अनेक रूपों में विवेचन किया गया है, वहाँ दृष्टव्य है।