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1 उपर्युक्त के विषय में हम स्पष्ट कर देना चाहते हैं कि आचार्य उमास्वामी ने उन्हें नवें संवराधिकार में ... मी लिया है। उनसे संकर-निर्जरा भी होती है।
.. समुप्तिसमितिधर्मानुप्रेक्षापरिषहजयचारित्रः ।।9/2।। गुप्ति, समिति, दश धर्म, बारह अनुप्रेक्षा, बाईस परिषहजय और पाँच प्रकार चारित्र से संवर होता है।
पाठकों को ज्ञातव्य है कि यहाँ उपरोक्त संवर के कारणों के अतर्गत संयम, व्रत, तप आदि उपरोक्त सम्मिलित हैं, जो पुण्य रूप हैं, जिनसे पुण्यासव होता है, उनसे संवर और निर्जरा भी होती है । न्याय के जानकारों को विदित है कि एक कारण से अनेकों कार्य होते हैं तथा अनेकों कारणों से एक कार्य होता है। अन्याय अर्थात् न्याय को ताक पर रख कर तो निर्णय होता ही नहीं है। एक ही अग्नि से प्रकाश, ताप, लोकस्थित और नाश अनेको कार्य होते हैं।
तत्त्वार्थ सूत्र के आधार पर पुण्य पाप विषयक मीमासा से निम्न निष्कर्ष ग्रहणीय हैं -
पाप अधर्म है, हेय है। पुण्य धर्म है, उपादेय है। पुण्य रूप धर्म को व्यवहार मोक्षमार्ग रूप में वास्तविक मोक्षमार्ग रूप में स्वीकृत किया गया है । अशुभोपयोग को छोड़कर शुभोपयोग में प्रवर्तन करना चाहिये तथा इसके द्वारा शुद्धोपयोग का लक्ष्य रखना चाहिये । शुद्धोपयोग मुनिदशा में ही सभव हो सकता है, सभी मुनियो को भी नही । गृहस्थ तो मात्र शुभोपयोग का पात्र है । शास्त्रों में पुण्य का उपदेश सर्वत्र है । पुण्य और पाप मे महान अंतर है। दोनों का स्वरूप ही विरुद्ध है। किसी भी नय का प्रयोग सर्वत्र सर्वदा नहीं किया जा सकता। दोनों का उपयोग गौण-मुख्य रूप से संभव है । पुण्य रूप व्यवहार मोक्षमार्ग साधन है, निश्चय मोक्षमार्ग साध्य है । व्यवहार के बिना तीन काल मे कभी निश्चय की सिद्धि नही। शुभोपयोग शुद्धोपयोग का साधक है। अरहतादिक के प्रति भक्ति आदि विशुद्ध, शुभ, पुण्य परिणाम है, उससे पुण्यानव के साथ-साथ पाप की संवर-निर्जरा होती है। पूर्व में संचित पाप का संक्रमण पुण्य में हो जाता है, पाप कर्म की स्थिति अनुभाग घट जाते हैं, यह शुभ परिणाम शुत्र परिणाम का कारण हैं, समस्त कषाय मिटाने का साधन है। वीतराग विज्ञान का कारण है । व्रतादिक पुण्य मात्र जड़ की क्रिया नहीं, चेतन का परिणाम है । पुण्य परंपरा-मोक्षमार्ग है। उपादेय मानकर इस परंपरा मोक्षमार्ग का सेवन करना चाहिये, हेय मानकर नहीं। पुण्य को छोडना नहीं पड़ता, वह मोक्ष प्राप्ति होने पर स्वयं छूट जाता है। पाप छोड़ने के लिये प्रतिक्रमण आदि का आगम में विधान है, पुण्य छोड़ने को कहीं भी प्रतिक्रमण प्रतिज्ञा नहीं करनी पड़ती। वर्तमान पंचम काल में पाप की ही बहुलता है। पुण्य तो अत्यल्प है। अत: पाप त्याग का उपदेश है, जिसका अस्तित्व प्रचुर है।
तत्त्वार्थ सूत्र की उक्त मीमांसा के समर्थन में कुछ अन्य आगमोल्लेख प्रस्तुत हैं - 1. पुण्णफमा मरहता -(प्रवचनसार) अरहंत भगवान पुण्य रूपी कल्पवृक्ष के फल हैं।
'', '2. पुण्यं कुरुम्वकृतपुण्यमनीशोऽपि,
'. . ..मोपायोजमिणवति प्रभवेशभूत्यै। - आत्मानुशासन ... . .. यहाँ पुण्य करने का उपदेश है, उपादेय है, पुण्य अपने आप नहीं हो जाता । इससे स्पष्ट है कि जीव ने अनंत बार पुण्य भाव या पुण्य कर्म नहीं किया।