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142 / तत्सूत्र-निक
परनिन्दा और आत्मप्रशंसा तथा दूसरों के विद्यमान गुणों का आच्छादन और अविद्यमान गुणों का उद्भावन arents के aus हैं तथा ऐसा न करना एवं नम्रवृत्ति और अनुत्सेकभाव (अभिमानहीनता) उच्चगोत्र का आस्रवः कराते हैं। दूसरों के दान, लाभ, भोग, उपभोग और वीर्य में विघ्न डालने से अन्तरायकर्म का आस्रव होता है। (त. सू., 6/25-27)
इस प्रकार तत्त्वार्थसूत्र में इन शुभाशुभ योगप्रवृत्तियों को ज्ञानावरणादि आठ कर्मों ओर अघातिकर्मों की शुभाशुभ प्रकृतियों के आसव का हेतु प्ररूपित किया गया है।
आठों कमों का आसव शुभाशुभ उपयोग से
प्रवचनसार आदि ग्रन्थों में शुभाशुभ उपयोगों को इन आठ कर्मों के आस्रव का कारण बतलाया गया है। यथापरिणमदि जवा अप्पा सुहम्हि असुहम्हि रागदोसजुदो ।
तं पविसदि कम्मरयं णाणावरणादिभावेहिं ॥ प्र. सा. 2 / 95
अर्थ : जब आत्मा रागद्वेष युक्त होकर शुभ (शुभोपयोग) या अशुभ ( अशुभोपयोग) में परिणत होता है, तब उसमें ज्ञानावरणादि के रूप में कर्मरज प्रविष्ट होती है।
उवभोगो जदि हि सुहो पुण्णं जीवस्स संचर्य जादि ।
असुहो वा तच पावं तेसिमभावे ण चयमत्थि ।। प्र. सा. 2/64
अर्थ : यदि उपयोग शुभ है, तो जीव के पुण्य का संचय होता है, यदि अशुभ है, तो पाप का सचय होता है। इन दोनों प्रकार के उपयोगों के अभाव में अर्थात् शुद्धोपयोग के सद्भाव में पाप और पुण्य दोनों का संचय नहीं होता ।
ज्ञानावरणादि कर्म पापकर्म हैं और सातावेदनीय, शुभायु, शुभनाम एव शुभगोत्र पुण्यकर्म । (त. सू. 8 / 2527 ) अत: उक्त गाथा में शुभ और अशुभ उपयोगों से आठों कर्मों का आस्रव बतलाया गया है। शुभाशुभ योग और उपयोग में कथंचित् अभेद
यतः आत्मा की शुभाशुभ उपयोगरूप परिणति मन, वचन, काय के माध्यम से ही होती है तथा मन, वचन, काय की प्रवृत्ति शुभाशुभ उपयोग के प्रभाव से ही शुभाशुभ बनती है, अत: योग में शुभाशुभ उपयोग। इसलिए शुभाशुभ उपयोगों से कर्मों का आस्रव होता है अथवा शुभाशुभ योग कर्मास्रव के हेतु हैं, इन दोनों कथनों में कोई अन्तर नहीं है। आचार्य कुन्दकुन्द ने कहा है -
सुजोगस्स पविती संवरणं कुणदि असुहजोगस्स ।
सुहजोगस्स गिरोहो सुनुवजोगेण संभवदि || बारसाणुवेक्खा 13
अर्थ : शुभयोग की प्रवृत्ति अशुभयोग का निरोध करती है और शुभयोग का निरोध शुद्धोपयोग से होता है।
• इस गाथा में कुन्दकुन्द ने शुभाशुभयोग और शुभाशुभ उपयोग को समानार्थी के रूप में प्रयुक्त किया है, क्योंकि शुद्धोपयोग से शुभोपयोग का निरोध होने पर ही शुभयोग का निरोध संभव है।