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-ब्रह्मदेवसूरि ने भी दोनों का अभेदरूप से उल्लेख किया है। यथा -- }
'मिष्यादृष्टचादिrtenerयपर्यन्तमुपर्युपरि मन्दत्वात् तारतम्येन तावदसुद्धनिश्चयो वर्तते । तस्य मध्ये पुनर्गुनस्थानभेदेन शुभाशुभ-शुद्धानुडानरूपयोगत्रय-व्यापारस्तिडति । तदुच्यते निष्यादृष्टिसासावनमिवगुणस्थानेषूपर्युपरिमन्यत्वेनाशुभोपयोगी वर्त्तते । ततोऽप्यसंवतसम्यग्दृष्टिभावक प्रमससंक्तेषु पारम्पर्येण शुद्धोपयोग-साधक उपर्युपरि तारतम्येन शुभोपयोगो वर्तते । तदनन्तरमप्रमत्ताविक्षीणकषायपर्यन्तचन्यमध्यमोत्कृष्टभेदेन विवक्षितैकदेशशुजनव-रूपशुद्धोपयोगो वर्तते ।' (बृहद्रव्यसंग्रह, टीका गाथा 34 )
यहाँ ब्रह्मदेवसूरि ने शुभ, अशुभ और शुद्ध योगत्रयव्यापार को ही शुभ, अशुभ और शुद्ध उपयोग के रूप में वर्णित किया है। इस तरह आचार्यो ने दोनों में कथंचित् अभेद स्वीकार किया है।
मियात्वादि पाँच प्रत्यय आसव के हेतु
मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद और कषाय इन चार प्रत्ययों से योग शुभ और अशुभ बनता है। ये शुभाशुभ उपयोग केही विभिन्न रूप हैं । (ता. वृ. प्र. सा. गाथा 1 / 9 ) अतः मूलतः ये ही आठ कर्मों के आसव हेतु हैं । धबला में निम्नलिखित गाथा उद्धृत की गयी है।
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मिच्छत्ताविरदी वि य कसायजोगा य आसवा होति ।
दंसण- विरमण - मिग्गह गिरोहमा संवरो होति ॥ धवला, पु. 7/9
अर्थ : मिथ्यात्व, अविरति, कषाय और योग ये कर्मो के आस्रवहेतु हैं तथा सम्यक्त्व, संयम, अकषाय और अयोग सवर के हेतु हैं । यहाँ प्रमाद को कषाय में अन्तर्भूत कर लिया गया है।'
मिथ्यात्वादि के निमित्त से जिन-जिन प्रकृतियों का आस्रव होता है, उनका वर्णन 'षट्खण्डागम' और 'सर्वार्थसिद्धि' में किया गया है। वे इस प्रकार हैं
मिथ्यात्वोदय की विशेषता से निम्नलिखित सोलह प्रकृतियो का आस्रव होता है : मिथ्यात्व, नपुसकवेद, नरकायु, नरकगति, एकेन्द्रियजाति, द्वीन्द्रियजाति, त्रीन्द्रियजाति, चतुरिन्द्रियजाति, हुण्डकसस्थान, असम्प्राप्तासृपाटिकासहनन, नरकगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, आतप, स्थावर, सूक्ष्म, अपर्याप्तक और साधारणशरीर । (ष. ख. पु. 8 / 42-53, स. सि. 9/1 )
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अनन्तानुबन्ध कषायजनित असयम की विशेषता से ये पच्चीस प्रकृतियाँ आस्रवित होती हैं : निद्रानिद्रा, प्रचलाप्रचला, स्त्यानगृद्धि, अनन्तानुबन्धी- क्रोध, मान, माया, लोभ, स्त्रीवेद, तिर्यचायु, तिर्यचगति, मध्य के चार संस्थान, मध्य के चार संहनन, तिर्यग्गतिप्रायोग्यानुपूर्वी, उद्योत, अप्रशस्तविहायोगति, दुर्भग, दुःस्वर, अनादेय और नीचगोत्र | ( ष. खं. पु. 8 / 300, स. सि. 9 / 1 )
अप्रत्याख्यानावरणकषायजनित असंयम की विशेषता से आम्रव को प्राप्त होने वाली दश प्रकृतियाँ निम्नलिखित
१. को पमादो माम दुजलण-णवणोकसायाणं तिव्वोदओ 1 - धवला, पु. 7/11