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________________ - - अर्ष : योग शुभ और अशुभ कैसे होता है ? शुभ परिणाम के उत्पना मोम शुम कहलाता है और अशुभ परिणाम से उत्पन्न योग अनुच । शुभ-अशुभ कर्मों के बना हेतु होने से शुभ-अशुभ नहीं कहलाते। ऐसा कहने पर शुभयोग को अस्तित्व ही नहीं होगा, क्योंकि शुभयोग भी ज्ञानावरणादि अशुभ कर्मों के बन्ध का कारण होता है। । .. . यहाँ शुभाशुभ परिणाम का अर्थ शुभाशुभ उपयोग है। यह भाचार्य अमितगति के निम्नलिखित वचन से स्पष्ट है शुभाशुभोक्पोनेन वासिता योगवृत्तयः ।। सामान्येन प्रजायन्ते दुरितासवहेतवः ।। - योगसारप्राभृत 3/1 ___ अर्थ : शुभ और अशुभ उपयोग से सम्पृक्त योगवृत्तियाँ सामान्यरूप से दुरितों (शुभाशुभकर्मों) के आशय का हेतु होती है। भानावरणादि आठों कर्मा का शाबर शुभाशुभ योग मे तत्त्वार्थसूत्रकार ने केवल अर्थग्रहणव्यापारात्मक उपयोग का उल्लेख किया है, शुभाशुभशुद्धपरिणामात्मक उपयोग का नाम भी नही लिया। उन्होंने शुभ और अशुभ योग को ही ज्ञानावरणादि समस्त कर्मों के आसव का हेतु बतलाया है। यह उनकी पातनिका टिप्पणियो से स्पष्ट हो जाता है । यथा - 'उक्त: सामान्येन कर्मासवभेदः । इदानीं कर्मविशेषासवभेदो वक्तव्यः । तस्मिन् वक्तव्ये आधयोनिदर्शनावरणयोराम्रवभेदप्रतिपत्त्यर्थमाह - तत्प्रदोशनिव-मात्सर्यान्तरायासादनोपघाता ज्ञानदर्शनवरणयोः।' (स. सि. 6/10) इस सत्र मे सत्रकार ने ज्ञान के विषय में प्रदोष, निव, मात्सर्य, अन्तराय, आसादन और उपघात करने को ज्ञानावरण और दर्शनावरण कर्मों के आसव का हेतु कहा है। स्वय मे और दूसरो में उत्पन्न किये गये दुःख, शोक, ताप, आक्रन्दन, वध और परिदेवन असातावेदनीय के आस्रव हेतु तथा प्राणियों पर अनुकम्पा, व्रतियों पर अनुकम्पा, दान, सरागसयम, क्षान्ति (क्षमा) और शौच (निर्लोभ) के भाव सातावेदनीय के आस्रव हेतु बतलाये गये हैं। (त.सू., 6/11-12) केवली, श्रुत, सघ, धर्म और देवों का अवर्णवाद (मिथ्यादोषारोपण) दर्शनमोहनीय के आस्रव के कारण हैं (त. सू., 6/13)। कषायोदयजन्य तीव्र आत्मपरिणाम से चारित्रमोहनीय कर्म आम्रवित होता है। बहु आरम्भ और बहुपरिग्रह नरकायु का, माया तिर्यंचायु का, अल्प आरम्भ और अल्पपरिग्रह मनुष्यायु का, स्वाभाविक मृदुता मनुष्यायु और देवायु का तथा शीलव्रतरहितता चारों आयुओ का आसव कराती है । (त.सू., 6/14-19) सरागसयम, संयमासंयम, अकामनिर्जरा और बालतप देवायु के आसबहेतु हैं । सम्यक्त्व भी देवायु के आसव का कारण है । (त. सू. 6/20-21) मनोयोग, वचनयोग और काययोग की कुटिलता से अशुभनामकर्म का तथा उनकी सरलता से शुभनामकर्म का आसव होता है। (त.सू. 6/22-23) दर्शनविशुद्धि, बिनयसम्पन्नता, शील और व्रतों का अतिचार रहिल पालन, सतत् ज्ञानोपयोग, सततसवेग, यथाशक्तित्वान और तप करना, साधुसमाधि, वैयावृत्य करना, अर्हद्भक्ति, आचार्यभक्ति, बहुश्रुतभक्ति, प्रवचनभक्ति, आवश्यकों का नियम से पालन, मोक्षमार्ग की प्रभावना और प्रवचनवात्सल्य, ये सोलह तीर्थंकर प्रकृति के आम्रव के हेतु हैं। (त.सू., 6/24)
SR No.010142
Book TitleTattvartha Sutra Nikash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRakesh Jain, Nihalchand Jain
PublisherSakal Digambar Jain Sangh Satna
Publication Year5005
Total Pages332
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size20 MB
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