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कारण हैं। व्यवहारनय की दृष्टि से क्रोध, मान, माया, हास्य, रति, अरति, शोक, मय, जुगुप्सा और नपुंसको देषात्मक हैं पर लोभ, स्त्री-पु-वेद रागात्मक हैं। इसी तरह जुसत्र नय की अपेक्षा क्रोध द्वेष है, मान और माया गोष है और न पेज्ज तथा लोभ पेज्ज है। शब्दनय की अपेक्षा क्रोध, मान, माया और लोभ द्वेषात्मक है और लोभ को छोड़कर क्रोध, मान, माया पेज्ज नहीं हैं किन्तु लोभ कथंचित् पेज्ज हैं। इस तरह कषाय आत्मा की आवेगात्मक अनुभूतिया है। लोया और आभामण्डल
इन कषायों को अध्यवसाय अथवा लेश्या कहा जा सकता है। समयसार में बुद्धि, अध्यवसाय, व्यवसाय, मति, विज्ञान, चित्त, भाव और परिणाम को एकार्थक माना गया है। (गाथा 271) यह आस्रव है, कर्मबन्ध का मूल कारण है। हमारे चैतन्य के चारों ओर कषाय के बलय के रूप में कार्माण शरीर है। कर्मयुक्त आत्मतत्त्व इसी वलय से गुजरता है। अध्यवसाय की शुद्धता अशुद्धता कषाय की मन्दता और तीव्रता पर निर्भर रहती है। अचेतन मन संस्कारों से संवर्धित होता है और वे अध्यवसाय को प्रभावित करते हैं। अध्यवसाय से मन भी प्रभावित हुए बिना नहीं रहता। अध्यवसाय की शुद्धता जीवन की यथार्थ शुद्धता है। गुणस्थान का सिद्धान्त इसी सिद्धान्त पर आधारित है। सातवें नरक में भी जीव को शुभ परिणामों के बल पर सम्यक्त्व प्राप्त हो सकता है। जातिस्मरण ज्ञान मे भी उत्तरोत्तर शुभ परिणामों की अनिवार्यता मानी गई है। अवधिज्ञान, मन:पर्ययज्ञान और केवलज्ञान की उपलब्धि भी इसी विशुद्धता पर आधारित है।
कषाय और योग से व्यक्ति का आभामण्डल बनता है जो उसके विचार और चरित्र का दिग्दर्शक माना जाता है। भावों के अनुसार उसका रंग बदलता रहता है । कृष्ण, नील, कापोत रग व्यक्ति की गर्हित प्रवृत्ति के सूचक है और तेज (पीत), पद्म, और शुक्ल लेश्याये सद्प्रवृत्ति को बताती है । ये रग सूक्ष्म शरीर से निकलने वाली भावात्मक किरणें हैं जो सूक्ष्म शरीर के चारों ओर अण्डाकृति में उभर जाती हैं। जैनदर्शन में इसे लेश्या कहा जाता है। साधारण तौर पर यह आभामण्डल दिखाई नहीं देता पर आधुनिक विज्ञान की मदद से वह देखा जाने लगा है। इस आभामण्डल से व्यक्तित्व की पहचान होती है। काला रंग प्रमाद, कषाय. करता का परिचायक है। नीले वर्ण में उसकी ईष्या, माया, आसक्ति, हिसक प्रवृत्ति देखी जा सकती है। कापोत रग में वक्रता, मात्सर्य और मिथ्यादृष्टि प्रतिबिम्बित होती है। रक्तवर्ण की प्रधानता में धार्मिकता, ऋजुता, पीतवर्ण में अल्पक्रोध, आत्मसयम, प्रशान्तचित्त और श्वेतवर्ण में जितेन्द्रियता, शुद्धाचरण और संयम पराकाष्ठा झांकती है। इन रगों के अनेक भेद-प्रभेद होते है और तदनुसार व्यक्तित्व को परखा जा सकता है। आधुनिक मनोविज्ञान में इस क्षेत्र में अच्छा काम हुआ है। व्यक्तित्व निर्माण और कर्मसिदान्त
जैनदर्शन के अनुसार कार्माणशरीर को व्यक्तित्व निर्माण का मूल घटक माना जाता है । मनोविज्ञान में जिस वंशानुक्रम और वातावरण का उल्लेख आता है उसे जैनदर्शन में हम निमित्त-उपादान के रूप में देख सकते हैं। माता-पिता की अनुवंशिकता तो रहती ही है पर वातावरण और परिवेश को द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव के अनुसार फलदायी बनाया जा सकता है। वातावरण और परिवेश निश्चित ही व्यक्तित्व के निर्माण में सहयोगी होते हैं। जीव में अनेक जन्मों के संस्कार एकत्रित होते हैं जो उसकी विलक्षणता के मूलकारण हैं।
जैन साहित्य में संस्थान और संहनन का वर्णन आता है नामकर्म के सन्दर्भ में | नामकर्म के अनुसार शरीर की संरचना होती है। संस्थान का तात्पर्य शरीर के आकार-प्रकार से है और संहनन उसकी अस्थिमयी ढांचा