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________________ 136/ स्वार्थसूत्र- निकल 4. सज्वलन क्रोध, मान, माया, लोभ । इसमें 9 मोकषाय को मिलाकर उसके कुल 25 भेद हो जाते हैं - हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, स्त्रीवेद, पुंवेद और नपुंसकवेद । मनोविज्ञान की दृष्टि से इन्हें क्रमशः आवेग तथा उपावेग कह सकते हैं। क्रोध और मान द्वेषात्मक हैं तथा माया और लोभ रागात्मक हैं। 1. समवायांग में माया के 17 नाम दिये गये हैं जिनसे उसकी प्रकृति का पता चलता है- माया (कपटाचार), उपधि, निकृति, वलय (वक्रतापूर्ण वचन), गहन, नूम ( निकृष्टकार्य करना), कल्क (हिंसा करना), दम्भ, कुरुक, ( निंदित व्यवहार), जैह्न (कपट), किल्विषिक (भाटो के समान चेष्टाये), अनाचरण, गूहन, वचन, प्रतिकुंचनता और साचियोग ( मिलावट ) । 2. लोभ का अर्थ है संग्रह करने की वृत्ति। समवायाग में उसके 14 पर्यायार्थक शब्द दिये हुए है - लोभ, इच्छा, मूर्च्छा, काक्षा, गृद्धि, तृष्णा, भिध्वा (विषयों का ध्यान ), अभिध्वा ( चञ्चलता), कामाशा (कामेच्छा), भोगाशा, जीविताशा, मरणाशा, नदि और राग । 3. क्रोध और मान द्वेषात्मक हैं। द्वेष मोह का ही भेद है। इसमें परिणाम वैरमूलक रहते हैं। ईर्ष्या, द्वेष, रोष, दोष, परिवाद, मत्सर, असूया, वैर, प्रचण्डन उसके पर्यायवाची है। समवायाग मे क्रोध के 10 पर्यायवाची दिये गये है- क्रोध, कोप, रोष, अक्षमा, दोष, सज्वलन, कलह, चाण्डिक्य, भण्डन और विवाद । 4. इसी तरह मान के 11 पर्यायवाची शब्द देकर उसकी व्याख्या की गई है- मान, मद, दर्प, स्तम्भ (अविनम्रता ), आत्मोत्कर्ष, गर्व, पर-परिवाद, उत्कर्ष, अपकर्ष, उन्नाम (गुणी के सामने न झुकना) और पुर्नाम (यथोचित रूप से न झुकना)। इस मान के आठ भेद माने गये हैं जाति, कुल, बल, ऐश्वर्य, बुद्धि, सौन्दर्य और अधिकार । ये क्रोधादि कषाय रूप आवेग बड़े शक्तिशाली हैं। उनकी शक्ति को प्रतीकात्मक ढंग से व्यक्त किया गया है और उनका फल भी बताया गया कषाय क्रोध 1. अनन्तानुबन्धी शिलारेखा 2. अप्रत्याख्यान पृथिवीरेखा धूलिरेखा जलरेखा शक्तियों के दृष्टान्त माया वेणुमूल 3. प्रत्याख्यान 4. संज्वलन मान शैल अस्थि दारू-काष्ठ वेत्र नय की दृष्टि से भी कषायों पर विवेचन हुआ है। नैगम और सग्रह की दृष्टि से राग-द्वेषात्मक अनुभूतियाँ होती हैं। क्योंकि वह अनर्थी के कारण हैं और माया, लोभ, हास्य, रति, स्त्री-पु-नपुसकवेद रागात्मक हैं क्योंकि वे प्रसन्नता के लोभ किरमजी का रंग या दाग मेषग गोमूत्र खुरपा फल नरक चक्रमल कीचड हल्दी तिर्यञ्च मनुष्य देव
SR No.010142
Book TitleTattvartha Sutra Nikash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRakesh Jain, Nihalchand Jain
PublisherSakal Digambar Jain Sangh Satna
Publication Year5005
Total Pages332
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size20 MB
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