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से। मोक्षप्राप्ति में संस्थान बाधक नहीं है पर संहनन बाधक अवश्य है । वह आध्यात्मिक विकास का परिचायक है। प्रथम गुणस्थान से सातवें गुणस्थान तक सभी संहनन वाले मनुष्य विकास कर सकते हैं पर उसके आगे क्षपक श्रेणी में वजवृषभनाराच संहनन का होना आवश्यक है। संस्थान भी नामकर्म का फल है। वह भी शुभ-अशुभ कर्मों के अनुसार बनता है। मनोविज्ञान के क्षेत्र में नाडीतन्त्र और ग्रन्थितन्त्र पर अच्छा काम हुआ है। मोहकर्म की प्रकृतियों के सन्दर्भ में. उनका विश्लेषण किया जा सकता है। जेम्स, लांगे तथा मेक्डूनल ने संवेग सम्बन्धी जो सिद्धान्त प्रस्तुत किये हैं वे इन प्रकृतियों से काफी मिलते-जुलते हैं। फ्रायड की इदम और लिबिडो तथा मृत्युवृत्ति की तुलना भी इनसे की जा सकती
मनोविज्ञान के क्षेत्र में संस्कारों की प्रतिष्ठा सर्वविदित है। पुनर्जन्म के कारणों में संस्कारों का विशेष स्थान है। यह भी मनोवैज्ञानिक तथ्य है कि सत्त्वों के स्वभाव, शक्ति, व्यक्तित्व एवं विचार माता-पिता के समान होते हैं। इसी प्रकार उसके आहार-प्रकार का भी प्रभाव उसके स्वभाव पर पड़ता है। वात-पित्त-कफ या सत्-रज-तम का विश्लेषण भी इसी सन्दर्भ में किया जा सकता है। जैनदर्शन में औदयिक अवस्था में अशुभ लेश्या होती है, मिथ्यात्व प्रबल होता है। इसलिये उसे छद्मस्थ कहा जाता है । अध्यवसायों की प्रशस्तता और शुभ लेश्याओं की प्रकर्षता से क्षायोपशमिक और क्षायिक व्यक्तित्व का विकास होता है। मनोविज्ञान में इसे आवेग नियन्त्रण की पद्धतियों कहा जाता है। जैनधर्म में उसे मार्गान्तरीकरण की संज्ञा दी गई है। उपशम, क्षय और क्षयोपशम इसी के अन्तर्गत आते हैं। इसे हम आध्यात्मिक व्यक्तित्व निर्माण की सीढियाँ कह सकते हैं। उसकी सारी विकास यात्रा जैन मनोविज्ञान में अत्यन्त स्पष्ट रूप से चित्रित की
इस प्रकार तत्त्वार्थसूत्र का छठा अध्याय वस्तुत: जैन मनोविज्ञान है जो मन की सारी परतों को उघाडते हए आधुनिक पाश्चात्य मनोविज्ञान की विचारधाराओं के समीप तक और किसी क्षेत्र में कई कदम आगे भी पहुंच जाता है। प्रारम्भ से ही जैनधर्म ने सिद्धान्त की अपेक्षा स्वानुभूति पर अधिक बल दिया है। कल्पना लोक मे विचरण करने का उसका स्वभाव नहीं रहा। व्यक्ति के गुणों को विकसित करने और उसकी शक्ति को शाश्वत शान्ति पाने की ओर खींचने का एक विशिष्ट गुण जैनाचार्यों में रहा है। उन्होंने मन को विशुद्ध करने के उपाय इस दिशा में निर्दिष्ट किये हैं। ध्यान इसका सर्वोत्तम साधन है। तस्व का अन्तर्निरीक्षण, उसकी प्रक्रिया, रूप, अर्थ और आवश्यकता से सम्बद्ध है। मन और शरीर तथा वस्तुतत्व की प्रकृति पर व्यक्ति जितना गहरा चिन्तन करेगा वह अध्यात्म की उतनी ही गहराई तक पहंचता जायेगा। संसार से मोक्ष तक की यात्रा मन के विभिन्न आयामों पर ही आधारित है जिसे हम जैन मनोविज्ञान की संज्ञा दे