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- हेमार्पिमस्तु माध्यस्थ्य तस्माद् बस्तु पयात्मकम् । नोत्पावस्थितिभंगानाममा स्थान्मदिनमम् ॥ न नामेन बिना सोको नात्यायेम बिना सुखम् ।
स्थित्या बिना नमाध्यस्य तेन सामान्यनित्यता अर्थात् सुवर्ण के प्याले को तोड़कर जब माला बनाई जाती है, तब प्याले के इच्छुक मनुष्य को दुःख होता है, माला इच्छुक मनुष्य आनन्दित होता है, किन्तु स्वर्ण के इच्छुक मनुष्य को न हर्ष होता है, और न शोक । अत: बस्तु त्रयात्मक है। यदि पदार्थ में उत्पाद, व्यय और धौव्य न होते, तो तीन व्यक्तियों के तीन प्रकार के भाव नहीं होते, क्योंकि प्याले के नाश से प्याले के इच्छुक व्यक्ति को शोक नही होता। माला के उत्पाद बिना माला के इच्छुक व्यक्ति को सुख नहीं होता तथा स्वर्ण का इच्छुक मनुष्य प्याले के विनाश और माला के उत्पाद में माध्यस्थ नहीं रह सकता। अत: वस्तु सामान्यतया नित्य है और विशेष की अपेक्षा से अनित्य ।
यद्यपि द्रव्य को गुण-पर्याय वाला कहा गया है तथा उनके परस्पर भेद भी बताये गए हैं, किन्तु ये पृथक्-पृथक् नहीं हैं, इनमें कोई सत्तागत भेद नहीं है, अपितु तीनों एकरस रूप हैं, एक सत्तात्मक हैं । पर्याय से रहित गुण और द्रव्य तथा द्रव्य और गुण से रहित कोई पर्याय नहीं होती। तीनों की संयुति ही द्रव्य है। जैसे स्वर्ण अपने पीतत्वादि गुण तथा कड़ा, कुण्डलादि आकृतियों से रहित नहीं मिलता, वैसे ही पदार्थ जब भी मिलता है, वह अपने गुण और पर्यायों के साथ ही मिलता है । इसलिए पर्याय को द्रव्य और गुण से अपृथक् कहा गया है।
पज्जयविजुदं दव्वं दन्यविजुत्ता य पज्जया णत्यि।
दोण्हं अणण्णभूदं भावं समणा पल्वेति ॥ पंचास्तिकाय, I? अर्थात् पर्याय से रहित कोई द्रव्य नही तथा द्रव्य से रहित कोई पर्याय नही है, दोनो अनन्यभूत है, ऐसा जिनेन्द्र कहते हैं। वस्तुत: पदार्थ गुण और पर्यायों का अपृथक् गुच्छ है ।
इस प्रकार हमने सत् रूप पदार्थ के स्वरूप को समझा । यह उत्पाद-व्यय-धौव्यात्मक है तथा गुण और पर्याय वाला है। गुण और पर्याय
गुण पदार्थ में रहने वाले उस अग का नाम है, जो उसमें सर्वदा रहता है तथा सर्वाश में व्याप्त रहने के कारण सर्वत्र भी रहता है। जैसे पूर्वोक्त उदाहरण में दिये गए आम में रहने वाले उसके स्पर्श आदि गुण उसमें सदा रहते हैं तथा वे सर्वाश में व्याप्त हैं। मुणों में होने वाले परिवर्तन को पर्याय कहते हैं। गुण पदार्य में सदा रहते हैं, इसलिए इन्हे सहभावी या सहवर्ती भी कहते हैं तथा पर्याय क्षण-क्षायी होती है तथा तात्कालिक ही होती है, एक काल में एक ही होती है। इस वजह से क्रम में आने के कारण इन्हें क्रमवर्ती या क्रमभावी भी कहते हैं। गुण त्रैकालिक होते हैं, पर्याय तात्कालिक होती हैं । गुण और पर्याय में इतना ही अन्तर है।
१.मीमांसकालोकवार्तिक, 1.610