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..116/स्वार्था-निकाय
इस प्रकार गुण भी सत् द्रव्य की तरह नित्यानित्यात्मक हैं। चूंकि सत् नित्यानित्यात्मक है, इसलिए उसे उत्पादव्यय-धौय्य लक्षण वाला कहा गया है। गण नित्य है. पर्याय अनित्य है, इसलिए द्रव्य को गण पर्याय वाला भी कहते हैं। इन तीनों लक्षणों में ऐक्य है, इसलिए आचार्य कुन्दकुन्द ने द्रव्य का लक्षण तीनों प्रकार से किया है -
दम्ब सल्लक्सणियं उप्पादब्वयधुवत्तसंजुतं ।
गुणपज्जयासयं वा भण्णंति सव्वण्ह ।। पंचास्तिकाय,10 अर्थात् भगवान् जिनेन्द्र द्रव्य का लक्षण सत् कहते हैं, वह उत्पाद, व्यय और धौव्य से युक्त है अथवा जो गण और पर्यायों का आश्रय है, वह द्रव्य है। आचार्य समन्तभद्र ने एक उदाहरण से द्रव्य की नित्यानित्यात्मकता की सुन्दर प्रस्तुति की है -
घटमालिसुवर्णा नाशोत्पादस्थितिध्वयम् ।
शोक-प्रमोद-माध्यस्थ्यं जनो याति सहेतुकम् ।। आ.मी.59 एक राजा है जिसकी एक पुत्री है और एक पुत्र । उसके पास सोने का कलश है, पुत्री उमे चाहती है । पुत्र उसे गलवाकर मकट बनवाना चाहता है। राजा पुत्र की भावना को पूर्ण करने के लिए कलश को गलवाकर मुकुट बनवा देता है। घट के नाश से पुत्री दु:खी होती है, पुत्र आनन्दित होता है। राजा स्वर्ण का स्वामी है, घट के टूटने और मुकुट के बनने दोनों में उसका स्वर्ण मुरक्षित है, इसलिए वह मध्यस्थ रहता है । अत: वस्तु प्रयात्मक है।
जैनदर्भन मान्य पदार्थ की नित्यानित्यात्मकता को पातजलि ने भी स्वीकार किया है, वे लिखते है - 'द्रव्यं नित्यं भाकृविरनित्या । सुवर्ण कयाचित् आकृत्या युक्तो पिण्डो भवति । पिण्डाकृतिमुपमद्य रुचकाः क्रियन्ते । पुनरावृतः सुवर्णपिण्ड: पुनरपरा च आकृत्या युक्तः खदिरांगार सदृशे कुण्डले भवतः । आकृति अन्या च अन्या भवति तव्यं पुनस्तदेव आकृत्युपमर्दैन द्रव्यमेवावशिष्यते।'' .
अर्थात् द्रव्य नित्य है और आकार अर्थात् अनित्य है। मवर्ण किसी एक विशिष्ट आकार में पिण्ड रूप होता है। पिण्ड रूप का विनाश करके उसकी माला बनाई जाती है। माला का विनाश करके उसके कड़े बनाए जाते हैं। कडों को तोडकर उससे अमुक आकार का विनाश करके खदिरागार के सदृश दो कुण्डल बना लिये जाते हैं। इस प्रकार आकार बदलता रहता है, परन्तु द्रव्य वही रहता है। आकार के नष्ट होने पर भी द्रव्य शेष रहता ही है।
पातजलि के उपर्युक्त कथन से जैनदर्शन मान्य द्रव्य की नित्यता और पर्याय की अनित्यता का पूर्ण रूप से पोषण होता है। नित्यानित्यात्मक होने से उत्पाद-व्यय-धौव्य रूप वस्तु को 'मीमासकदर्शन' के प्रवर्तक 'कमारिल्लभद्र' ने भी स्वीकार किया है। उन्होंने तो 'आचार्य समन्तभद्र' कृत उदाहरण को भी अपनाया है। वे वस्तु को त्रयात्मक मानते हुए कहते हैं
वर्धमारक भंगे य रुचकः क्रियते यदा। तवा पूर्वार्थिनः शोकः प्रोतिश्चाप्युत्तरार्थिनः ।।
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१. पालकान महाभाष्य, 1/1/1