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तस्वार्थसून-निक/ 115
विवानित्वात्मकता
प्रतिक्षण परिवर्तित होते रहने के कारण द्रव्य अनित्य है तथा परिवर्तित होते रहने के बाद भी वह अपने मूल में अपरिवर्तित है, अत: द्रव्य नित्य भी है । इसलिए जैनदर्शन में द्रव्य को नित्यानित्यात्मक कहा गया है। यदि द्रव्य सर्वथा नित्य होता, तो जगत् के सारे पदार्थ कूटस्थ हो जाते। न तो नदियाँ बह पाती, न ही पेड़ों के पत्ते हिल पाते । बालक, बालक ही रहता, वह युवा न हो पाता, युवा युवा ही रहता, वह वृद्ध नहीं हो पाता, वृद्ध वृद्ध ही रहता, वह मर न पाता। जो जैसा है, वह वैसा ही रहता । यदि पदार्थ अनित्य ही होता, तो प्रतिक्षण बदलाव होते रहने के कारण हम एकदसरे को पहचान ही नहीं पाते और प्रतिक्षण होने वाले परिवर्तन की इस दौड़ में किसी का किसी से परिचय ही नहीं हो पाता । ऐसी स्थिति में न तो हमें कोई स्मृति होती, न ही होते हमारे कोई सम्बन्ध, जबकि ऐसा है ही नहीं, क्योंकि यह तो प्रत्यक्ष और अनुभव के विपरीत है। अत: जैनदर्शन में पदार्थ के स्वरूप को नित्य और अनित्य दोनों रूपों वाला अर्थात नित्यानित्यात्मक कहा गया है।
नित्यानित्यात्मक होने के कारण द्रव्य को गण-पर्याय वाला कहा गया है। गण पदार्थ का नित्य अंश है, वह कभी भी नष्ट नहीं होता। उसकी अवस्थाएँ/पर्याय बदलती रहती हैं। पदार्थ अनेक गुणों का समूह है। उनमें होने वाला परिवर्तन ही पर्याय है। प्रत्येक गुण द्रव्य के आश्रित रहता है, किन्तु स्वयं अन्य गुणों से हीन/रहित होता है। इसलिए यह गुण होकर भी निर्गुण कहलाता है । गुण पदार्थ में सर्वत्र रहते हैं। ऐसा नहीं है कि वह पदार्थ के किसी एक अंश में रहता हो, वह तो तिल में तेल की तरह पूरे पदार्थ में व्याप्त होकर रहता है। सर्वत्र होने के साथ-साथ वह सर्वदा पाया जाता है, इसलिए इसे नित्य कहते हैं। पर्यायें क्षण-क्षायी होती हैं, प्रतिक्षण मिटते रहने के कारण ये (पर्याय) अनित्य कहलाती
समझने के लिए, आम एक पदार्थ है । स्पर्श, रस, गन्ध तथा रूप इसके गुण हैं । इन गुणों का समूह ही आम है। यदि इन्हें पृथक कर लिया जाये तो आम नाम का कोई पदार्थ ही नहीं बचता, किन्तु इन्हें पृथक किया ही नहीं जा सकता । ये द्रव्य के अनन्य अंग हैं। द्रव्य से इनका नित्य सम्बन्ध रहता है। आम का स्वाद, रंग, गंध और स्पर्श रूप गुण आम के रग-रग में समाये हैं। अत: वस्तु गुणों का समूह रूप है । इन गुणों में परिवर्तन होता रहता है। आम खट्टे से मीठा, मीठे से कड़वा, कड़वे से कसैला हो सकता है, उमका हरा रंग बदलकर पीला या काला हो सकता है, वह कठोर से मृदु अथवा पिलपिले स्पर्श वाला हो सकता है, सुगधित से वह दुर्गन्धित भी हो सकता है । ये सब पूर्वोक्त चार गुणो की अवस्थाएँ हैं, किन्तु गुणों में परस्पर कोई परिवर्तन नहीं होता। उसका रंग बदलकर रस नहीं होता, रस बदलकर रंग नहीं बन सकता। उसी तरह गंध और स्पर्श भी अपने मूल रूप में नहीं बदलते। गुण त्रैकालिक होते हैं । यही गुणों की नित्यता है। पर्यायों में परिवर्तन होते रहने के कारण उन्हें अनित्य कहते हैं। १. सर्वार्थसिद्धि, पृ. 232 २. गुणपर्ययवद् द्रव्यम् । - तत्त्वार्थसूत्र, 5/38 ३. कार्तिकेयानुप्रेक्षा, गाथा 241 ४. गुणविकास: पाः । - आलापपद्धति, पृ. 134 ५. द्रव्याश्रया निर्गुणा: गुणाः । - तत्त्वार्थसूत्र, 5/41 ६. सहभुवो हि गुणाः । - धवला, पु. 174 ७. क्रमवर्तिनः पर्यायाः। - आलापपद्धति, पृ. 140