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। । काल के अणु एलपशि के समान लोकाकाश के एक-एक प्रदेश में एक-एक रूप से स्थित हैं। अर्थात् लोकाकाश के जितने प्रदेश हैं (असंख्यात) उतने ही स्वतन्त्र कालाणु हैं।
। दोनों परम्पराओं का सापेक्ष विवेचन करें तो वर्तमा और परिणमादि काल के लक्षण भी हैं और पदार्थ की पर्याय भी। पर्याय-पदार्थ रूप ही होती है, इस अपेक्षा से काल को स्वतन्त्र द्रव्य न मानकर औपचारिक द्रव्य माना है। लेकिन काला भिन्न-भिन्न हैं और पर्याय परिवर्तन में सहकारी निमित्त के रूप में भाग लेता है, उपादान रूप से नहीं, इस अपेक्षा से काल को स्वतन्त्र द्रव्य माना जा सकता है।
वैज्ञानिक मिन्को के चतुर्दिक आयाम समीकरण (ax +dy + dz +dt = 0) में आकाश के 3 आयाम एवं काल को अन्तर्निहित किया गया है। वैज्ञानिक ऐडिन्टन के अनुसार - 'Time is more Physical reality than matter.'
अर्थात् काल, पदार्थ से ज्यादा वास्तविक भौतिक है।' जैनदर्शन में 'काल' द्रव्य का अस्तिकाय न मानकर 'अकाय' माना है। काल के अकायत्व का समर्थन ऐडिन्टन के इस कथन से होता है - I shall use the Phrase time-urrow to express thus one way property of time which no analogne in space.' उन्होने काल द्रव्य की अनन्तता पर 461 - The world is closed in space dimension, but it is open at torth and of time-dimension' freno 37 कहावत को समय के सन्दर्भ में चरितार्थ किया कि समय तीर की तरह भागता है और जैसे तरकस से निकला तीर कभी वापिस नहीं आता, वैसे ही गुजरा हुआ समय वापिस नहीं आता।
आइन्स्टीन का कथन है कि जिस प्रकार रंग, आकार, परिमाण हमारी चेतना से उत्पन्न विचार हैं, उसी प्रकार आकाश और काल भी हमारी आन्तरिक अभिकल्पना के ही रूप हैं। जिन वस्तुओं को हम आकाश में देखते हैं उनके क्रम के मतिरिक्त आकाश की कोई वस्तु सापेक्ष वास्तविकता नहीं है। इसी प्रकार जिन घटनाओं के द्वारा हम समय को मापते हैं. उन घटनाओं के क्रम के अतिरिक्त काल का कोई स्वतन्त्र अस्तित्व नहीं है । आकाश व काल का स्वतन्त्र वस्तु सापेक्ष अस्तित्व न होने पर भी 'आकाश व काल की संयुक्त चतुर्विमीय सततता' वस्तु सापेक्ष वास्तविकता का प्रतीक है।
जैनदर्शन में काल के मुख्य दो भेद किये गये हैं - 1, व्यवहारकाल, 2. निश्चयकाल ।
लोकाकाश के प्रदेशों में स्थित कालाणु निश्चय काल है और वे ही पदार्थों के परिणमन में निमित्त बनते हैं। आगम में व्यवहारकाल के सम्बन्ध में निम्नलिखित गणना पायी जाती है -
1. असंख्यात 'समय' के समुदाय को - एक आवलिका।
१. कालव्य : नदर्शन एवं विज्ञान, कुमार अनेकान्त जैन : डा. हीरालाल जैन स्मृति ग्रन्थ ऋषिकल्प' आपेक्षिकता के सिद्धान्त के अनुसार आकाशकी तीन विमायें और काल की एक विमा मिलकर एक चतुर्मिकीय अखण्डता का निर्माण करता है, और हमारे वास्तविक जगत में होने काली सभी घटनाये रतुर्विषीय सततता का विविध अवस्थायें के रूप में सामने आती है। The Universe and Dr Einkuino - Puge 21-22 to Page 78.