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आइन्स्टीन के विश्व विषयक सिद्धान्त में समस्त आकाश ममगाहित है। इसका कोई अंश रिक्त नहीं है । परन्तु डच वैज्ञानिक 'डी मीटर' का मानना है कि शून्य (पदार्थरहित) आकाश की विद्यमानता है ।"
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अनेकान्तवाद से उक्त दोनों वैज्ञानिक के कथन की पुष्टि की जा सकती है। आइन्स्टीन का 'विश्व-आकाश' लोकाकाश की ओर संकेत करता है, जबकि डी सीटर का विश्व माकाश जो सम्पूर्ण रूप से शून्य है, अलोकाकाश की और संकेत करता है।
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आकाश सांत होते हुए भी उसकी सीमा को नहीं पाया जा सकता है। वैज्ञानिक पॉइनकेर ने सांन्त आकाश का विश्लेषण इस प्रकार प्रस्तुत किया
पॉइनकेर ने विश्व को एक अत्यन्त विस्तृत गोले के समान माना है, जिसके केन्द्र में उष्ण तापमान है, जो गोले की सतह की ओर जाने पर क्रमशः घटता जाता है। विश्व की सीमा पर, यानी गोले की अन्तिम सतह पर वास्तविक शून्य होता है। पदार्थों का विस्तार उष्ण तापमान के अनुपात से होता है। केन्द्र से सीमा की ओर जाने पर पदार्थों का विस्तार भी क्रमशः कम होना प्रारम्भ हो जायेगा तथा उसका वेग भी घटता जायेगा। जिससे कोई कभी उसकी सीमा तक नहीं पहुँच सकते । यही कारण है कि जैनदर्शन में वर्णित - जीव, पुद्गल आदि अलोकाकाश में नहीं पाये जाते हैं।
5. काल द्रव्य - उमास्वामी ने तत्त्वार्थसूत्र के पाँचवे अध्याय में "कालश्च" सूत्र देकर 'काल' को एक स्वतन्त्र द्रव्य निरूपित किया है। जो अकायवान है तथा पदार्थों के परिणमन में यह उदासीन निमित्त होता है । 'काल' द्रव्य का उपकार - वर्तना, परिणाम, क्रिया और परत्वापरत्व है ।' समय के आश्रय से होने वाली गति, स्थिति, उत्पत्ति और वर्तना ये सब एक ही अर्थ के वाचक हैं। यद्यपि सभी पदार्थ अपनी उपादान शक्ति से वर्त रहे हैं। परन्तु उनको वर्ताने बाला - कालद्रव्य है । 'काल' द्रव्य के सन्दर्भ में क्रिया शब्द से 'गति' समझना चाहिए जो 3 प्रकार की होती है - प्रयोगगति, विससागति, और मिश्रमति । इसीप्रकार परत्वापरत्व प्रशंसाकृत, क्षेत्रकृत और कालकृत होता है ।
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आधुनिक भौतिकी के अनुसार `The speed of a space point relative to its surrowding points is the fundamental aspect in corporated in the cllsign og the universal space and from this basic Phenomen on of the changing positions or space points arises The veru concept of time.' ( Beyond Matter - By - P. Tiwari Page - 87)
श्वेताम्बर परम्परा में काल को औपचारिक द्रव्य माना गया है, जबकि दिगम्बर परम्परा में काल को वास्तविक द्रव्य माना है । गोम्मटसार जीवकाण्ड में कहा भी है
लोगागास पदेसे एक्के एक्के जेडिया हु एक्केक्का । रवाणं रासी इव से कालाणु अदव्यानि 1158811
१. वर्तनापरिणामः क्रिया परत्वापरत्वे च कालस्य 11 5+22 11
२. 'कालश्चेत्येके' पाठ मिलता है जबकि दिगम्बर परम्परा में 'कालश्च' ।