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माइकेल्सन वैज्ञानिक ने प्रकाश का वेग ज्ञात करते समय एक ऐसे ही अखण्ड सर्वव्याप्त द्रव्य की परिकल्पना की थी जो पूर्ण प्रत्यास्थ (Perfectly Elestic) पूर्ण लचीला, अत्यन्त हल्का, और प्रकाश कणों को चलाने में सहायक माध्यम की भाँति व्यवहार करता है। उसे 'ईथर' नाम दिया गया। ईथर और धर्मद्रव्य के गुणों में साम्यता देखी गयी ।
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दोनों अमूर्तिक, भाररहित, निष्क्रिय हैं तथा उदासीन कारण हैं। वैज्ञानिक अभिधारणाएँ हैं कि यह भौतिक पदार्थ नहीं है। केम्ब्रिज विश्वविद्यालय में ज्योतिष विद्या के प्रोफेसर A. S. Eddington का यह कथन सर्वमान्य हुआ
"Nowadays it is
agreed that aether is not a Kind of matter', Filling all Space and not moving.'
उक्त कथन को जैनाचार्यों ने इस प्रकार वर्णित किया
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अमूर्ती निष्क्रियो निलये मत्स्यानां जलवद् भुवि ॥
नियमसार में अधर्मद्रव्य के सम्बन्ध में कहा है - " अधम्मं ठिदिजीवपुग्गलाणं च ॥'
३. अधर्मद्रव्य -
द्रव्यसंग्रह की गाथा 18 दृष्टव्य है -
ठाणयुदाण अधम्मो, पुग्गलजीवाण ठाणसहबारी ।
छाया जह पहिबाणं, गच्छंता व सो धरई ॥
अधर्मद्रव्य जीव और पुद्गलों की स्थिति में सहायक या उदासीन कारण होता है, जिस प्रकार एक पथिक के लिए उसके रुकने में वृक्ष की छाया उदासीन निमित्त होती है। यह भी एक अखण्ड, लोक में परिव्याप्त, घनत्व रहित, अभौतिक, अपारमाण्विक पदार्थ है। आधुनिक विज्ञान इसकी तुलना गुरुत्वाकर्षण क्षेत्र से करता है। क्योंकि लोक में वस्तु के ठहराव में गुरुत्वाकर्षण को स्वीकार किया गया है।
उक्त दोनों धर्म और अधर्म असंख्यात प्रदेश वाले हैं। लोकाकाश भी असख्यात प्रदेशी होता है, जबकि सम्पूर्ण आकाश अनन्त प्रदेशी है। एक जीव भी असंख्यात प्रदेशी है। ये चारों असंख्यात प्रदेशी होने से प्रदेशों मे समान होते है। क्योंकि धर्मद्रव्य और अधर्मद्रव्य का अवगाह केबल लोकाकाश में ही है, अलोकाकाश में नहीं ।
4. माकाशग्रव्य तत्त्वार्थसूत्र में कहा गया है कि जीव और पुद्गल द्रव्यों को अवगाह देना आकाश द्रव्य का कार्य 'माकाशस्यावगाहः" ।। 5-18 ।।
जैन दार्शनिकों ने आकाश को एक स्वतन्त्र द्रव्य माना है। यह दो प्रकार रूप है 1. लोकाकाश और 2. अलोकाकाश । विज्ञान जगत में आकाश को स्वतन्त्र द्रव्य के रूप में स्वीकार कर लिया गया है। डॉ. हेन्सा का यह कथन बहुत प्रासंगिक है -
These four Elements - Matter Time and Medium of motion are all seperate and we can not imagine that one of thow could depend on another or converted into another.'
'अर्थात् आकाश, पुद्गल, काल और धर्मद्रव्य (गति का माध्यम) ये चारों तस्व न एक दूसरे पर निर्भर हैं और न । एक दूसरे में परिवर्तित हो सकते हैं। जिसके अन्दर जीवसहित शेष पाँच द्रव्य रहते हैं वह लोकाकाश आकाश लोक में भी है और लोक के बाहर यानी सर्वत्र व्याप्त है। अलोकाकाश में अन्य पाँच द्रव्य अनुपस्थित रहते केवल वहाँ आकाश द्रव्य ही रहता है।