SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 165
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 109 उक्त समीकरण इस बात का द्योतक है कि अर्जा, - (Energy). (B) = Maise (M)X(Velocity of light संहति युक्त होती है, जो जैनदर्शन की मान्यतानुसार है। पुदगल की प्रमुख विशेषाएँ - स्मरसमानः पुनः 3: 23 11' - व्याख्या प्रज्ञप्ति में कहा गया है - पोम्नलत्विकाए पंचबण्णे दुर्गचे पंचरसे मासे पण्णत्ते || अर्थात् पुद्गल में 8 स्पर्श, 2 गन्ध, 5 रस, व 5 वर्ण कुल 29 मूलगुण पाये जाते हैं। स्निग्ध, रूक्ष, शीत और उष्ण ये चार स्पर्श चतुःस्पर्शी पुद्गल स्कन्धों में पाये जाते हैं। मनोवर्गणा, भाषावर्गणा, श्वासोच्छ्वासवर्गणा और कार्मणवर्मणा चतुस्पर्शी श्रेणी में आते हैं जो संहति रहित होते हैं, जबकि अष्टस्पर्शी स्कन्धों में आठों ही स्पर्श होने से वे संहतिवान होते हैं। जैसे - आहारवर्गणा (और तैजसवर्गणा वाले पुद्गल - स्कन्ध) । आधुनिक विज्ञान स्कन्धों की गति तीव्रता या मन्दता से क्रमश: ताप वृद्धि और ताप हानि मानता है। जैनदर्शन'वर्ण' प्रत्येक पुद्गल परमाणु या सूक्ष्म स्कन्ध का वस्तु सापेक्ष गुण मानता है। पाँच वर्णों में से एक वर्ण अवश्य होता है। विज्ञान वर्ण की व्याख्या प्रकाश के तरंग सिद्धान्त से प्रतिपादित करता है। प्रकाश तरंग की विविध आवृत्तियाँ (Frequencies) अथवा तरंग दैर्ध्य (Wave length) विशिष्ट वर्ण की सूचक होती हैं। जैसे लालवर्ण का औसत तरंग दैर्ध्य 7000 A° है। वर्ण के सम्बन्ध सुप्रसिद्ध वैज्ञानिक सर सी० वी० रमन द्वारा किये गये वैज्ञानिक शोधकार्य ( 1930 में नोबल पुरस्कार) से यह बात प्रमाणित होती है कि वर्ण-वस्तु सापेक्ष है, ज्ञाता सापेक्ष नहीं। यह तथ्य जैनसिद्धान्त से मेल खाती है। पुद्गल द्रव्य के अन्य गुण 'रूप, रस, गन्ध और वर्ण के अलावा उसके और भी गुण धर्म हैं जिन्हें आचार्य उमास्वामी ने तत्त्वार्थसूत्र 5-24 में वर्णित किया है - शब्दवन्धसौक्ष्म्यस्थी स्यसंस्थानभेदतमश्छायातपोद्योतवन्तश्च ॥ अर्थात् शब्द, बन्ध, सौक्ष्म्य, स्थौल्य, संस्थान, भेद, तम (अन्धकार), छाया, आतप ( सूर्य का प्रकाश), उद्योत (दृश्य एवं अदृश्य ठंडी प्रभा) ये दस पुद्गल द्रव्य के ही धर्म (Properties) हैं। 2. धर्मद्रव्य - 'गतिस्थित्युपग्रही धर्माधर्मयोरुपकारः ' ।। 5-17 ।। उक्त धर्मद्रव्य के लक्षण को द्रव्यसंग्रह में कहा है - परिणयाण धम्मो, पुग्मलजीवाण गमणसहकारी । तोर्थ जह गच्छा, अच्तानेव सो नेई ॥ 17 ॥ जिस प्रकार मछली के तैरने या चलने में जल सहायक होता है, उसी प्रकार जीव व पुद्गल के गमन में, धर्मद्रव्य सहकारी कारण बनता है। पंचास्तिकाय में धर्मद्रव्य को इस प्रकार व्याख्यापित किया गया - "न तो यह स्वयं चलता है न किसी को चलाता है, केवल गतिशील जीव व पुद्गल स्कन्धों या अणुओं की गति में सहकारी या उदासीन कारण बनता है । धर्मद्रव्य - सम्पूर्ण लोक में व्याप्त अमूर्तिक द्रव्य है जो जीव के आगमन, गमन, बोलना, मनोयोग, वचनयोग, काययोग, सनोवर्गणाओं और भाषावर्गणाओं के अतिसूक्ष्म पुमलों के प्रसारित होने में निमित्त कारण बनता है ।"
SR No.010142
Book TitleTattvartha Sutra Nikash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRakesh Jain, Nihalchand Jain
PublisherSakal Digambar Jain Sangh Satna
Publication Year5005
Total Pages332
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy