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तत्त्वार्थसूत्र में वर्णित पुद्गल द्रव्य
जिस प्रकार आकाश में आज अनेक उपग्रह टंगे हुए है वैसे ही अलोकाकाश में लोकाकाश टंगा हुआ है। लोकाकाश में जीव, पुदगल या अजीय, धर्म, अधर्म, आकाश और काल ये छह द्रव्य ठसाठस भरे हुए हैं। इन द्रव्यों का विभाजन करें
द्रव्य
धर्म
जीव पुद्गल
अधर्म माकाश काल 1. चेतन अचेतन की दृष्टि से चेतन अचेतन अचेतन अचेतन अचेतन अचेतन 2. मूर्तिक-अमूर्तिक की दृष्टि से अमूर्तिक मूर्तिक अमूर्तिक अमूर्तिक अमूर्तिक अमूर्तिक 3. अस्ति-अनस्तिकाय दृष्टि से अस्तिकाय अस्तिकाय अस्तिकाय अस्तिकाय अस्तिकाय अनस्तिकाय
जैनदर्शन में पुद्गल को मूर्तिक स्वीकार किया गया है । आचार्य उमास्वामी कहते हैं - 'रूपिणः पुद्गला"। पुद्गल की व्युत्पत्ति बताते हुए कहा गया है - पूरपन्ति गलयन्तीति पुद्गला: अर्थात् जो द्रव्य (स्कन्ध अवस्था मे) अन्य परमाणुओं से मिलता है (पृ + णिच्) और गलन (गल् ) = पृथक्-पृथक् होता है, उसे पुद्गल कहते हैं । आचार्य कुन्दकुन्द ने लिखा है -
बण्णरसफासा विज्जते पोग्गलम्स सहुमादो । पुच्वीपरिर्वतस्स य सहो सो पोग्गलो चित्तो ॥' बावरसामगदाणे खंधाणं पुग्गलोक्ति ववहारो ।
है होति उपचारा तेलोक जेहिं णिप्पण्णं ।। तत्त्वार्थसूत्र में भी 'स्पर्शरसगन्धवर्णवन्तः पुद्गलाः'' कहकर इसी तथ्य को स्पष्ट किया गया है । भाव यह है कि पुद्गल द्रव्य में 5 रूप, 5 रस, 2 गन्ध और 8 स्पर्श ये चार प्रकार के गुण होते हैं। पुद्गल के इन गुणों की एक रेखाचित्र द्वारा इस प्रकार देख सकते हैं१. तत्वार्थसूत्र 5/5 २. माध्वाचार्य, सर्वदर्शनसंग्रह, चौखम्भा विद्या भवन, 1964, पृ. 153 ३. प्रवचनसार, श्रीमद राजचन्द्र आश्रम, अगास, वि. स. 2021, गाथा 2/40 ४. तत्वार्यसूत्र 5/3 *अध्यक्षा, संस्कृत विभाग, श्री कुन्दकुन्द जैन स्नातकोत्तर महाविद्यालय, खतौली, (उ.प्र.)
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