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________________ .. मोली में से एक पोली मांस की नली बसी कर दी हो, जैसे ही लोक के बीच में असताती है। यह राजू कमी एवं सर्वत्र एक राबू लम्बी-चौड़ी है। इसी में त्रस जीवों का निवास रहता है। लोक का निचला हिस्सा अमोलोक है। जो सात राजू ऊँचा है, जहाँ सातों नरकों में नारकी जीव है।रलप्रभा पृथ्वी के पहभाग में असुरकुमारों के भवन और राक्षसों के आवास है। शेष भवनवासी और व्यन्तरदेवों के आवास खरभाग में हैं। लोक के ऊपरी भाग को ऊर्वलोक कहते हैं। यह 10 योजन कम सात राजू ऊँचा है। इसमे वैमानिक देवों का निवास तथा शिखर पर सिद्धालय है। अपस्थित क्षेत्र-त्रिलोक के अन्तर्गत दो प्रकार का क्षेत्र है - अवस्थित एवं अनवस्थित । जहाँ षट्काल परिवर्तन नहीं होता है, सदा एक-सी वर्तना रहती है वह अवस्थित है। अधोलोक एवं ऊर्ध्वलोक में अवस्थित क्षेत्र है। मध्यमलोक में भी अधिकांश भाग अवस्थित होता है। इनमें भोगभूमि, कुभोगभूमि एवं कर्मभूमि के म्लेच्छखण्ड में बिल्कुल ही परिवर्तन नहीं होता। मनपस्थित बेष- भरत और ऐरावत के 5-5 आर्यखण्डों में ही उत्सर्पिणी और अबसर्पिणी के 6-6 काल परिवर्तन होते हैं। तदनुसार हानिवृद्धि और परिवर्तन होते रहते हैं । अतः ये क्षेत्र अनवस्थित हैं। भाखण्डों में प्रसव एवं कायाकल्प - अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी कालचक्र के अनुसार भरत और ऐरावत क्षेत्रो के आर्यखण्डों में षट्काल परिवर्तन होता है। अवसर्पिणी के अन्त में छठे काल के अन्त में संवर्तक वायु, पर्वत, वृक्ष, भमि आदि का चर्ण करती हई दिशाओं के अन्त तक भमण करती है. जिससे वहाँ स्थित जीव मच्छित हो जाते हैं. कछ मर भी जाते हैं। कुछ पुण्यात्माओं को विद्याधर दया करके गुफाओं में वेदियों और बिलों में रख देते हैं। तत्पश्चात छठे काल के अन्त में ही क्रमश: पवन, अतिशीत, क्षाररस, विष, कठोर अग्नि, धूल और धुऑ इनकी 7-7 दिन तक वर्षा होती है। संवर्तक वायु के प्रकोप से बचे मनुष्य इन कुवृष्टियों से कालकवलित हो जाते हैं। कालवश विष एवं अग्नि की वर्षा से दग्ध छई पृथ्वी एक योजन नीचे तक चूर-चूर हो जाती है। उत्सर्पिणी के प्रथम काल में मेघ, क्रमश: जल, दूध, घी, अमृत और रस की वर्षा सात-सात दिन तक करते हैं । जलादि की वर्षा से पृथ्वी उष्णता को छोड़कर ठडी होती है । सुन्दर छवि, स्निग्धता, धान्य औषधि आदि को धारण करती है। जल की वर्षा से बेल, लता, गुल्म वृक्ष आदि सब वृद्धि को प्राप्त होते हैं। सुकाल आ जाता है। तब देवों और विद्याधरों द्वारा दयापूर्वक बचाकर ले जाए गये विजयाई की गुफाओं, गगा-सिन्धु की वेदियों, क्षुद्र बिलों आदि के निकट, नदी के किनारे गुफा आदि में रहने वाले जीव धरातल की शीतलता सुगन्ध आदि से आकृष्ट होकर वहाँ से निकलकर सारे भूभाग में फैल जाते हैं। धीरे-धीरे कुछ ही समय में भोगभूमि की स्थिति निर्मित हो जाती है । भरत-ऐरावत क्षेत्रों के आर्यखण्डों का कायाकल्प हो जाता है। ___ आधुनिक भूगोल के अनुसार तीन मण्डलों में विभक्त हमारी पृथ्वी और उसका परिवेश सतत परिवर्तनशील है। पृथ्वी पर जलमण्डल और स्थलमण्डल का विस्तार है और वायुमण्डल इस धरा को सब ओर से घेरे हुए है। इस पृथ्वी पर विद्यमान सभी सामर और जलाशय तरंगों और बारामों से सदा ही चल जाने रहते हैं, तीन-प्रहारों से तटीय भूरूपों में परिवर्तन लाते रहते हैं। वायुमण्डल में विद्यमान और जलवा तापमान की घंटा बी के सात मौसमी बदनाम करते रहते हैं। कभी धूप, कभी छाव, कभी बादल, कभी वर्षा, कभी आंधी, कभी तूफान, कहीं सूखा, कहीं गाद - सब वायुमण्डल की
SR No.010142
Book TitleTattvartha Sutra Nikash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRakesh Jain, Nihalchand Jain
PublisherSakal Digambar Jain Sangh Satna
Publication Year5005
Total Pages332
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size20 MB
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