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भूगील एवं खगील : तत्त्वार्थसून के सन्दर्भ में
* पं. अभयकुमार जैन
करणानुयोग, द्रव्यानुयोग और चरणानुयोग को अपने में समाहित करने वाला, दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों ही सम्प्रदायों में समान रूप से मान्य / प्रिय तत्त्वार्थसूत्र / मोक्षशास्त्र एक बहुमूल्य व बहुमान्य कृति है। इसमें जिनागम के मूलतत्वों को 357 सूत्रों में निबद्ध किया गया है। संस्कृतभाषा में निबद्ध सूत्रशैली का यह आद्य सूत्र ग्रन्थ है ओर इसके रचयिता आचार्य श्री उमास्वामी संस्कृतभाषा के आद्य सूत्रकार हैं। इसमें जैनधर्म का सार है।
जितनी विस्तृत टीकाएँ इस ग्रन्थराज पर लिखी मिलती हैं उतनी अन्य किसी ग्रन्थ पर नहीं । आचार्य श्री उमास्वामी के पश्चात् -वर्ती अनेक आचार्यों ने इस पर अनेक टीकाएँ लिखी, जिनमें आचार्य पूज्यपाद की तत्त्वार्थवृत्ति जिसका अपर नाम सर्वार्थसिद्धि है। इसके बाद श्रीअकलंकदेव ने तत्त्वार्थराजवार्तिक एव आचार्य विद्यानन्द स्वामी ने तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक नामक विस्तृत टीकाएँ लिखीं। श्वेताम्बरों में भी तत्त्वार्थाधिगमभाष्य, आचार्य सिद्धसेन गणि कृत एव आचार्य हरिभद्रसूरिकृत विशेष प्रसिद्ध भाष्य उपलब्ध होते हैं। श्वेताम्बराभिमत तत्त्वार्थसूत्र में कुल 344 सूत्र हैं, जिनमें शाब्दिक भेद होने के साथ-साथ कहीं कहीं सैद्धान्तिक दृष्टि से भी मतभेद है।
सूत्र रूप में ग्रथित इस ग्रन्थराज में जैनाचार-विचार, सिद्धान्त, न्याय, दर्शन आदि के साथ-साथ ज्ञान-विज्ञान का विषय भी सूत्र रूप में ग्रथित है। इसमें जीवविज्ञान, प्राणिविज्ञान, भौतिकविज्ञान, रसायनविज्ञान, भूगोल- खगोल विज्ञान आदि का भी कथन है। जिसका विस्तार ही परवर्ती टीकाओं में उपलब्ध होता है।
तत्त्वार्यसूत्र एवं जैनवाक्मय में भूगोल-गोल - तत्त्वार्थसूत्र के तीसरे और चौथे अध्याय में जैन भूगोलखगोल का संक्षेप में विवेचन है। जिसका विस्तार परवर्ती आचार्यों की टीकाओं में हुआ है। अनेक आचार्यों ने जैन भूगोलखगोल के परिचायक विस्तृत ग्रन्थों का भी प्रणयन किया है, जिनमें आचार्य श्री यतिवृषभ की तिलोयपण्णत्ती और आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती का त्रिलोकसार प्रमुख है। अन्य स्वतन्त्र रचनाओं में जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति, द्वीपसागरप्रज्ञप्ति, सूर्यप्रज्ञप्ति, चन्द्रप्रज्ञप्ति आदि उल्लेखनीय हैं। पुराणकारों ने भी अपनी-अपनी रचनाओं में जैनाभिमत भूगोल - खगोल का विवेचन प्रसङ्गानुसार किया है।
जैनभूगोल-बगोल करणानुयोग का विषय है आचार्य समन्तभद्र स्वामी ने रत्नकरण्ड श्रावकाचार में कहा 'लोक- अलोक के विभाग, युगों के परिवर्तन और चतुर्गति के स्वरूप को प्रकाशित करने के लिए करणानुयोग दर्पण की तरह है।' इस अनुयोग में प्रतिपादित समस्त विवरण इन्द्रियज्ञानगम्य न होने से आस्था के विषय हैं, क्योंकि स्वर्गनरक तो परोक्ष हैं और द्वीप समुद्र आदि पदार्थ दूरवर्ती और अत्यन्त प्राचीन हैं। सूर्य, चन्द्र, ग्रह, नक्षत्र आदि खगोलीय * कानूनगो चार्ड, बीना फोन 07580 224803
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