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तस्मार्थसूत्र-निक/79
'यहाँ प्रश्न उठ सकता है कि जैनधर्म के अनुसार तो जीव के शरीर की रचना कर्मों के अनुसार होती है फिर aratटेक्नालॉजी अथवा जीन अभियांत्रिकी के द्वारा शरीर रचना की अवधारणा की किस प्रकार व्याख्या की जावेगी ? क्योकि क्लोजी में प्रयास होता है कि मनचाहे गुण शरीर में प्रविष्ट करा सकें। यहाँ यह स्पष्ट करना उचित होगा कि जैनधर्म के अनुसार भी कर्मों में उदीरणा, उत्कर्षण, अपकर्षण तथा संक्रमण संभव है। जिसके कारण कर्मों में परिवर्तन भी किया जा सकता है। पुरुषार्थ द्वारा कर्मों की निर्जरा समय से पहिले भी की जा सकती है। कर्मों की काल मर्यादा एवं तीव्रता को घटाया, बढ़ाया जा सकता है तथा कर्म एक भेद से सजातीय दूसरे भेद में भी बदल सकता है। उदय में आ रहे कर्मों के फल देने की शक्तिको कुछ समय के लिये दबाया जा सकता है तथा कालविशेष के लिये उन्हें फल देने में अक्षम भी किया जा सकता है इसे उपशम कहते हैं। कर्मों का विपाक द्रव्य, क्षेत्र, काल एवं भाव के अनुसार होता है। यह विपाक निमित्त के आश्रित है एवं उसी के अनुसार फल देता है।
शरीर एवं व्यक्तित्व के निर्माण में आनुवंशिकता, बातावरण, भौगोलिकता, पर्यावरण अत्यन्त प्रभाव डालते है अतः नामकर्म के अलावा इन सभी स्थितियों का भी अत्यन्त महत्व होता है। अतः जेनेटिक इंजीनियरी से विभिन्न प्रकार के गुणों का समावेश करना जीन्स के सिद्धान्त के अनुसार संभव है एवं कर्मसिद्धान्त के अनुसार भी कर्मों में संक्रमण संभव
है ।
अत: यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि तत्त्वार्थसूत्र के अनेक अध्यायों के सूत्रों में वर्णित शरीर एवं जीवों की स्थिति आधुनिक बायोटेक्नालॉजी एवं जेनेटिक इंजीनियरी से साम्य प्रतीत होती है। फिर भी विज्ञान अभी भी अनेक स्थितियों को स्पष्ट नहीं कर सका है जैसे कि आत्मा एवं उसका शरीर परिवर्तन आदि ।
सन्दर्भ पुस्तक सूची
1. स्वतंत्रता के सूत्र (मोक्षशास्त्र) आचार्य कनकनन्दी महाराज, धर्मदर्शनविज्ञान शोध संस्थान बडौत, 2. बायोटेक्नालॉजी - एस. एस. पुरोहित एवं महेन्द्र असीज एग्रोवायोस प्रकाशन, जोधपुर
3. ए प्रेक्टीकल मेतुएल फॉर प्लाण्ट बायोटेक्नालॉजी- जी, तेजोवनी, विमला वाय. एवं रेखा भदौरिया, सीबीए प्रकाशन, नई दिल्ली
4. क्लोनिंग तथा कर्मसिद्धान्त - डॉ. अनिलकुमार जैन, आस्था और अन्वेषण, ज्ञानोदय विद्यापीठ, भोपाल, पृष्ठ
1-10.