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________________ समन्तभद्र के युगपत्सर्वभासन रूप तत्त्वज्ञान - केवलज्ञान की प्रत्यक्ष प्रमाण और स्पाद्वादनवसंस्कृत क्रममावीशान को परोक्षप्रमाण मानना अभीष्ट है। अनुमान के (पक, तुमार ग्दाहरण) तीन अवयवों से सिद्धि तत्त्वार्थसूत्र में कुछ सिद्धान्तों की सिद्धि अनुमान (युक्ति) से की गई है। उन्होंने अनुमानप्रयोग के तीन अवयवोंपक्ष, हेतु और उदाहरण से मति, श्रुत और अवधि इन तीन ज्ञानों के विपर्यय (अप्रमाण-प्रमाणाभास) सिद्ध करते हुए प्रतिपादन किया है 1. पक्ष - मतिश्रुसावधयो विपर्ययश्च, 2. हेतु - सदसतोरविशेषाद्यवृच्छोपलब्धेः, 3. उदाहरण - उन्मत्तवत् । अर्थात् मति, श्रुत और अवधि ये तीन ज्ञान विपर्यय (मिथ्या - अप्रमाण-प्रमाणाभास) भी हैं, क्योंकि उनके द्वारा सत् (समीचीन) और असत् (असमीचीन) का भेद न कर स्वेच्छा से उपलब्धि होती है, जैसे उन्मत्त (पागल पुरुष) का ज्ञान । उन्मत्त व्यक्ति विवेक न रखकर माता को स्त्री और स्त्री को माता कह देता है । उसी प्रकार मति, श्रुत और अवधि (विभंग) शान भी सत्-असत् का भेद न कर कभी काचकामलादि के वश वस्तु का विपरीत (अन्यथा) ज्ञान करा देते हैं। अत: ये तीन ज्ञान मिथ्याज्ञान भी कहे जाते है। तत्त्वार्थसूत्रकार के इस प्रतिपादन से स्पष्ट है कि तत्त्वार्थसूत्र मे न्यायशास्त्र भी समाहित है। सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह है कि उनके समय में तीन ही अनुमानावयव वस्तु-सिद्धि में प्रचलित थे, उपनय और निगमन को अनुमानावय स्वीकार नहीं किया जाता था या उनका जैन सस्कृति मे विकास नहीं हुआ था। तत्त्वार्थसूत्रकार के उत्तरवर्ती आचार्य समन्तभद्र ने भी 'देवागम' (आप्तमीमांसा) में उक्त तीन अवयवों से ही अनेक स्थलो पर वस्तु-सिद्धि की है। न्यायावतारकार सिद्धसेन ने भी अनुमान के तीन ही अवयवों का प्रतिपादन किया है। तत्त्वार्थसूत्रकार का तीन अवयवों से वस्तु-सिद्धि का दूसरा उदाहरण और यहाँ प्रस्तुत है। तत्त्वार्थसूत्र के दशवें अध्याय में तीन सूत्रों द्वारा मुक्त जीव के ऊर्ध्वगमन को सयुक्तिक सिद्ध करते हुए तत्त्वार्थसूत्रकार ने लिखा है - 1. पक्ष - तदनन्तरं (मुक्तः) ऊर्ध्व गच्छत्यालोकान्तात्।। 2. हेतु - पूर्वप्रयोगात्, असंगत्वात्, बन्धच्छेदात्, तथागतिपरिणामाच्च । 3. उदाहरण - आविद्धकुलालचक्रवत्, व्यपगतलेपालवुवत्, एरण्डबीजवत्, अग्निशिखावच्च । अर्थात् द्रव्यकों और भावकों से छूट जाने के बाद मुक्त जीव लोक के अन्तपर्यन्त ऊपर को जाता है, क्योंकि उसका ऊपर जाने का पहले का अभ्यास है, कोई संग (परिग्रह) नहीं है, कर्मबन्धन नष्ट हो गया है और उसका ऊपर जाने का स्वभाव है। जैसे कुम्हार का चाक, लेपरहित तूमरी, एरण्डका बीज और अग्नि की ज्वाला। मुक्त-जीव के ऊर्ध्वगमन को सिद्ध करने के लिए सूत्रकार ने चार हेतु दिये और उनके समर्थन के लिए चार उदाहरण भी प्रस्तुत किये हैं। इस तरह अनुमान से सिद्धि या विवेचन करना न्यायशास्त्र का अभिधेय है यद्यपि साध्याविनाभावी एक हेतु ही विवक्षित अर्थ की सिद्धि के लिए पर्याप्त है, उसे सिद्ध करने के लिए अनेक हेतुओं का प्रयोग और उनके समर्थन के लिए अनेक हेतुओं का प्रपोग और उनके समर्थन के लिए अनेक उदाहरणों का प्रतिपादन अनावश्यक है, किन्तु उस युग में न्यायशास्त्र का इतना
SR No.010142
Book TitleTattvartha Sutra Nikash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRakesh Jain, Nihalchand Jain
PublisherSakal Digambar Jain Sangh Satna
Publication Year5005
Total Pages332
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size20 MB
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