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तत्वार्थ
विकास नहीं हुआ था, वह तो उत्तरकाल में हुआ है । इसी से अकलंक, विद्यानन्द, माणिक्यमन्दि आदि न्याशास्त्र के आचार्यो-ने साध्य (विवचित अर्थ) की सिद्धि के लिए पक्ष बीर हेतु इन दोनों को अनुमान का अंग माना है, उदाहरण को भी उन्होंने नहीं माना - उसे अनावश्यक बतलाया है तात्पर्य यह कि तत्त्वार्थसूत्रकार के काल में परोक्ष अर्थों की सिद्धि के लिए न्याय (पुक्ति- अनुमान) को आगमन के साथ निर्णय-साधन माना जाने लगा था। यही कारण है कि उनके कुछ ही काल बाद हुए स्वामी समन्तभद्र ने युक्ति और शास्त्र दोनों को अर्थ के यथार्थ प्ररूपण के लिए आवश्यक बतलाया है। उन्होंने यहाँ तक कहा है कि वीरजिन इसलिए आप्त हैं, क्योंकि उनका उपदेश युक्ति और शास्त्र से अविरूद्ध है । तत्त्वार्थसूत्र के उक्त विवेचन से स्पष्ट है कि उसमें न्यायशास्त्र के बीज समाहित हैं, जिनका उत्तरकाल में अधिक विकास हुआ है।
तत्त्वार्थसूत्र के पाँचवें अध्याय के पन्द्रह और सोलहवें सूत्रों द्वारा जीवों का लोकाकाश के असंख्यातवें भाग से लेकर सम्पूर्ण लोकाकाश में अवगाह प्रतिपादन किया गया है। यह प्रतिपादन भी अनुमान के उक्त तीन अवयवों द्वारा हुआ है । पन्द्रहवां सूत्र पक्ष के रूप में और सोलहवा सूत्र हेतु तथा उदाहरण के रूप में प्रयुक्त है। जीवों का अवगाह लोकाकाश
असंख्यातवें भाग से लेकर सम्पूर्ण लोकाकाश में है, क्योंकि उनमें प्रदेशों का सहार (सकोच) और विसर्प (विस्तार) होता है, जैसे प्रदीप । दीपक को जैसा आश्रय मिलता है उसी प्रकार उसका प्रकाश हो जाता है। इसी तरह जीवो को भी जैसा आश्रय प्राप्त होता है वैसे ही वे उसमे समव्याप्त हो जाते हैं।
सत् में उत्पाद, व्यय और प्रौव्य की सिद्धि -
द्रव्य का लक्षण तत्त्वार्थसूत्र में आगमानुसार उत्पाद, व्यय और धौव्य की युक्तता को बतलाया है। यहाँ प्रश्न उठता है कि उत्पाद, व्यय अनित्यता (आने जाने) रूप है और धौव्य (स्थिरता) नित्यता रूप है। ये दोनों (अनित्यता और नित्यता) एक ही सत् में कैसे रह सकते हैं ? इसका उत्तर सूत्रकार ने हेतु का प्रयोग करके दिया है। उन्होंने कहा कि मुख्य (विवक्षित) और गौण (अविवक्षित) की अपेक्षा से उन दोनों की एक ही सत् में सिद्धि होती है। द्रव्यांश की विवक्षा करने पर उसमें नित्यता और पर्यायाश की अपेक्षा से कथन करने पर अनित्यता की सिद्धि है। इस प्रकार युक्ति पूर्वक सत् को उत्पाद व्यय-धौव्य रूप भयात्मक या अनेकान्तात्मक सिद्ध किया गया है।
नम -
प्रमाण की विवेचना के उपरान्त न्याय के दूसरे अंग नय का प्रतिपादन भी तत्वार्थसूत्रकार ने सक्षिप्त मे कहा है परन्तु जिनागम के मर्म को समझने के लिए नयों का स्वरूप समझना आवश्यक ही नहीं, अनिवार्य है क्योंकि समस्त जिनागम नयों की भाषा में ही निबद्ध है। नयों के समझे बिना जिनागम का मर्म जान पाना तो बहुत दूर, उसमें प्रवेश भी सम्भव नहीं है।
निगम के अभ्यास में सम्पूर्ण जीवन लगा देने वाले विद्वज्जन भी नयों के सम्यक् प्रयोग से अपरिचित होने के कारण जब जिनागम के मर्म तक नहीं पहुँच पाते तब सामान्य जन की तो बात ही क्या कहना ? कहा है कि - 'जे यदिद्विविहीना ताणेण वत्थूसहावडवलद्धि । वत्सहावविहूणा सम्मादिट्ठी कहँ हुति ॥'
जो व्यक्ति नय दृष्टि से विहीन है, उन्हें वस्तुस्वरूप का सही ज्ञान नहीं हो सकता और वस्तुस्वरूप को नहीं जानने वाले सम्यग्दृष्टि कैसे हो सकते हैं ?