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________________ परापेक्षा हालिएपख है। प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप में ज्ञान के दो भेद करके कुन्दकुन्द ने उनकी स्पष्ट व्याख्या प्रस्तुत की। परोक्ष ज्ञान के अन्तर्गत कुन्दकुन्द ने अवग्रह, ईहा आदि ज्ञानों को रखा अन्यत्र उन्होंने मतिज्ञान के उपलब्धि मानना और उपयोग तथा श्रुतज्ञान के लब्धि-भावना, उपयोग और नय भेद किये हैं। कुन्दकुन्द ने इस प्रकार ज्ञान के भेदों-प्रत्यक्ष और परोक्ष की चर्चा करके भी प्रमाण की कोई चर्चा नहीं की, परन्तु परवर्ती दार्शनिकों के लिए प्रमाण के सन्दर्भ में कुन्दकुन्द की शान पर्चा हो माधार बनी। तत्स्वार्थसूत्रकार ने मति और श्रुतज्ञान को परोक्ष प्रमाण और अवधि, मनःपर्यय और केवलज्ञान को प्रत्यक्ष प्रमाण कहकर प्रमाण चिन्तन के क्षेत्र में नवीन दृष्टिकोण प्रस्तुत किया। समीक्षक विद्वानों की दृष्टि में तस्वार्थसूत्रकार द्वारा उक्त प्रतिपादन अन्य दर्शनों के प्रमाण निरूपण के साथ मेल बैठाने और आगमिक समन्वय के लिए था। मति, स्मृति, संज्ञा, प्रत्यभिज्ञान, चिन्ता, तर्क और अभिनिबोध- अनुमान को मतिज्ञान के अन्तर्गत प्रमाणान्तर मानकर उन्हें परोक्षप्रमाण कहा गया। सभी जैन तार्किकों के लिए उनका यह विभाग प्रमाण भेद का आधार सिद्ध हुआ। डॉ. कोठिया समन्तभद्र के प्रमाण विभाग को तत्वार्थसूत्रकार के प्रमाणविभाग से भिन्न मानते हुए लिखते हैं कि स्वामी समन्तभद्र ने प्रमाण (केवलज्ञान) का स्वरूप युगपत्सर्वभासी तत्वज्ञान बताकर ऐसे ज्ञान को अक्रमभावी और क्रमश: अल्पपरिच्छेदी ज्ञान को क्रमभावी कहकर प्रमाण को दो भागों में विभक्त किया है। समन्तभद्र के इन दो भेदों में जहाँ अक्रमभावि मात्र केवल है और कमभावि मति, श्रुत, अवधि और मन:पर्यच ये चार ज्ञान हैं। वहाँ गृद्धपिच्छ के प्रत्यक्ष और परोक्ष इन दो प्रमाण भेदों में प्रत्यक्ष तो अवधि, मन:पर्यय और केवलज्ञान ये तीन ज्ञान है तथा परोक्ष मति और श्रुत ये दो ज्ञान इष्ट हैं। प्रमाण भेदों की इन दोनो विचारधाराओं मे वस्तुभूत कोई अन्तर नही है। गद्धपिच्छ का निरूपण जहाँ जान कारणों की सापेक्षता और निरपेक्षता पर आधृत है वहाँ समन्तभद्र का प्रतिपादन विषयाधिगम के क्रम और अक्रम पर निर्भर है। पदार्थों -ज्ञेयों का क्रम से होने वाला ज्ञान क्रमभावि और युगपत् होने वाला अक्रमभावि प्रमाण है। लगता है समन्तभद्र ने प्रमाण के सन्दर्भ में तत्वार्थसत्रकार का अनुकरण करने का भरसक प्रयत्न किया है, पर जो आगमिक प्रतीत नहीं हुआ उस पर उन्होंने अपना सामान्य विचार अभिव्यक्त कर दिया। तत्त्वार्थसूत्रकार ने मति, श्रुत, अवधि, मन:पर्यय और केवलज्ञान को प्रमाण कहा। समन्तभद्र ने भी मति आदि चार ज्ञानों के नामोल्लेख किये बिना सभी को प्रमाण कमी है उनके अनुसार एक साथ सभी के अवभासन रूप, तत्त्वज्ञान, जिसे केवलज्ञान कहा गया है, प्रमाण है। तत्त्वार्थसूत्रकार भी केवलज्ञान को प्रमाण बताकर उसे सभी द्रव्यों की सभी पर्यायों को एक साथ जानने वाला कहा है। समन्तभद्र की दृष्टि में अन्य ज्ञान क्रमभावी भी प्रमाण है। तत्वार्थसूत्रकार भी क्रम से होने वाली मति आदि चार ज्ञानों को प्रमाण मानते हैं। उन्होंने प्रथम दो शानों को परोक्ष और अन्तिम तीन शानों को प्रत्यक्ष प्रमाण के रूप में प्रमाण के दो भेद किये हैं, इसका भेद करना समन्तभद्र ने तत्त्वनिर्णायकों पर छोड़ दिया। उन्होंने सामान्यरूप से जानों के प्रमाण होने की स्थिति की विवेचना की। संक्षेप में यह प्रतिफलित होता है कि समन्सभन की दृष्टि में प्रमाण के दो भेद हैं - 1. युगपत्सर्वभासन रूप तत्वज्ञान - केवलज्ञान और 2. स्याद्वाद-नय से संस्कृत क्रममावी भान 1 ___ उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि तस्वार्थसूत्रकार के प्रत्यक्ष और परोक्ष प्रमाणों के अन्तर्गत मति आदि ज्ञानों के विभाजन विषयक अवधारणा के अनुकरण की स्पष्टोक्ति समन्तभद्र की व्याख्या के प्रसङ्ग में अकलंक की दृष्टि भी मनुत्तरित प्रतीत होती है। समन्तभद्र के सभी व्याख्याकारों के दृष्टिकोण के आधार पर यह कहा जा सकता है कि उनका
SR No.010142
Book TitleTattvartha Sutra Nikash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRakesh Jain, Nihalchand Jain
PublisherSakal Digambar Jain Sangh Satna
Publication Year5005
Total Pages332
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size20 MB
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