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तस्वार्थमा में जैन न्यायशास्त्र के बीज
* डॉ. शीतलचन्द जैन
तस्वार्थसूत्र जैन बाङ्मय का बात ही महत्वपूर्ण एवं प्रसिद्ध ग्रन्थ है। इसमें जैन तत्त्वज्ञान को 'गागर में सागर' की भांति भर दिया गया है। सम्भवत: इसी से इसके मात्र पाठ को या श्रवण को एक उपवास करने के बराबर प्रगट कर इसका महत्व बतलाया गया है। यही कारण है कि जैन परम्परा में इसका वही स्थान है जो हिन्दु परम्परा में गीता का, मुस्लिम सम्प्रदाय में कुरान का और ईसाइयों में बाईबल का माना जाता है।
तत्त्वार्थसत्र की इस महत्ता को देखकर दिगम्बर और श्वेताम्बर व्याख्याकारो ने इस पर छोटी-बड़ी दर्जनों व्याख्याएँ टीका, भाष्य, वार्तिक, टिप्पणी आदि लिखी हैं। इसमें 10 अध्याय है और इसमें सात तत्त्वों का सागोपाग कथन किया गया है। उन तत्त्वों के वर्णन में धर्म और दर्शन का पर्याप्त या यों कहिए कि प्रायः पूरा निरूपण उपलब्ध होता है।
अब प्रश्न है कि इस धर्म और दर्शन के ग्रन्थ में क्या उनके विवेचन या सिद्धि के लिए न्याय का भी अवलम्बन लिया गया है? इस प्रश्न का उत्तर जब हम तत्त्वार्थसूत्र का गहराई और सूक्ष्मता से अध्ययन करते है, तो उसी से मिल जाता
बाबका सारूप:प्रमाण और नव
न्यायदीपिकाकार अभिनव धर्मभूषणयति ने न्याय का स्वरूप लिखा है कि प्रमाण और नय दोनो न्याय है क्योंकि के द्वारा पदार्थों का ज्ञान किया जाता है। उनके अतिरिक्त उनके ज्ञान का अन्य कोई उपाय नहीं है जैसा कि उनके निम्न प्रतिपादन से स्पष्ट है। 'प्रमाणनयाभ्या हि विवेचिता जीवादयः सम्यगधिगम्यन्ते । तद्वयतिरेकेण जीवाद्यधिगमे प्रकारान्तरासम्भवात् ।'
न्याय शब्द की व्युत्पत्ति भी इस प्रकार दी गई है कि 'नि' पूर्वक 'इण गतौ' धातु से करण अर्थ में 'घ' प्रत्यय करने पर 'न्याय' शब्द सिद्ध होता है। 'नितरामियते ज्ञायतेऽर्थोऽनेनेति न्याय: अर्थपरिच्छेदकोपायो न्यायः इत्यर्थः स च प्रमाणनयात्मक एव' अर्थात् निश्चय से जिसके द्वारा पदार्थ जाने जाते हैं वह न्याय है और वह प्रमाण एव नय रूप ही है क्योंकि उनके द्वारा पदार्थों का ज्ञान किया जाता है अतएव जैनदर्शन में प्रमाण और नय न्याय हैं। पास्त्र में प्रमाण, प्रमाणामास और नव
न्याय के उक्त स्वरूप के अनुसार तस्वार्थसत्र में प्रमाण और नय दोनों का प्रतिपादन उपलब्ध है। तत्वार्थसूत्रकार ने स्पष्ट कहा है कि प्रमाण और नयों के द्वारा पदार्थों का यथार्थ ज्ञान होता है । यथा - प्रमाणाव्यरधिगमः ।
इससे स्पष्ट है कि तत्वार्थसूत्र में जहाँ धर्म और दर्शन का प्रतिपादन किया गया है वहाँ उसमें प्रमाण और नय रूप न्याय का भी प्रतिपादन है। "प्राचार्य, बी दिगम्बर जैन पाचार्य संस्कृत कॉलेज, वीरोदयनगर, सांगानेर (राजस्थान)