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________________ जैनदर्शन के चिन्तन की पूर्व परम्परा तीर्थकरों की देशना से जुड़ी है, जिसका सर्वप्रथम उपलब्ध रूप आगमों में देखा जा सकता है। उन आगमों से लेकर अब तक प्रमाण का विवेचन ज्ञान-मीमांसा के अन्तर्गत किया जाता रहा है। जिसका बाधार सैद्धान्तिक रहा है इस सैद्धान्तिक आगमिक परम्परा में आत्मा को सर्वाधिक महत्व दिया गया और उसे ज्ञान रूप स्वीकार किया गया। कर्मबन्धन से मुक्त होने पर प्रकट हुए आत्मा के पूर्ण विशुद्ध स्वरूप को केवलज्ञान का गया। दार्शनिक युग में इस ज्ञान की प्रसिद्धि पारमार्थिक प्रत्यक्ष के रूप में भी हुई और पूर्ण प्रमाणता इसी में सिद्ध की गई। दरअसल प्रमाण, नय आदि के दार्शनिक शैली में विवेचन से पूर्व इनके विकास का प्रमुख आधार ज्ञान का विवेचन आत्मा की क्रमिक विशुद्धता को केन्द्रबिन्दु बनाकर आगमिक शैली में किया जाना है। कर्मबन्ध आत्मा का ज्ञान जितने अंशों में आत्मसापेक्ष होकर प्रकट होता है और जितने अंशों में इन्द्रिय सापेक्ष होकर प्रकट होता है, उसी के आधार पर उतने ही अंशों में उसकी क्रमिक प्रामाणिकता का निर्णय किया जाता है। प्रमाण के भेद निर्धारण करने में भी यही सैद्धान्तिक मान्यता आधार बनी । सामान्य रूप से ज्ञानमीमांसा और प्रमाणमीमांसा को 'एक ही सिक्के के दो पहलू' के रूप में देखा जाता है, परन्तु उसमें थोडा अन्तर है और वह अन्तर सीमाओं का है आगमिक परम्परा में ज्ञान की मीमांसा मोक्षमार्ग को केन्द्रबिन्दु मानकर होती रही, जबकि प्रमाणमीमांसा का क्षेत्र मोक्षमार्ग के साथ सम्पूर्ण वस्तु जगत् तक विस्तृत हो गया । ज्ञान आत्मा का गुण होने के कारण उसका आत्मा के साथ एकत्व स्थापित कर ज्ञानमीमांसा के अन्तर्गत स्वभाव और विभाव के रूप में तत्त्वज्ञान का प्रतिपादन किया गया। वस्तु के पर निरपेक्ष रूप स्वभाव और पर सापेक्ष रूप विभाव को ज्यों का जानने का ज्ञान का कार्य माना गया और ज्यों का त्यों न जानकर स्वभाव को विभावरूप एवं विभाव को स्वभावरूप जानने वाले ज्ञान को मिथ्या कहा गया। व्यवहार में असत्य होते हुए भी मिथ्यादृष्टि का ज्ञान मोक्षमार्गोपयोगी न होने के कारण मिथ्या कहा गया । दार्शनिक युग में उक्त व्यवस्था मोक्षमार्ग तक सीमित न रहकर बाह्य अर्थ के प्रतिभास के अनुसार सम्पूर्ण तत्त्वों के अधिगम के लिए विस्तृत हो गई है। आगमिक युग में जो प्रयोजन सम्यक्त्व और मिथ्यात्व के द्वारा पूर्ण किया जाता था, दार्शनिक युग में वही प्रयोजन प्राय: प्रमाण और अप्रमाण द्वारा पूर्ण किया जाने लगा। ज्ञात हो कि जैन विद्वानों ने जैनदर्शन के साहित्यिक विकास को चार युगों में विभक्त किया है विक्रम पांचवीं शती तक आठवीं शती तक सत्रहवीं शत तक आधुनिक समय पर्यन्त 1. आगम युग 2. अनेकान्त व्यवस्था युग 3. प्रमाण व्यवस्था युग 4. नवीन न्याय युग : : : उपर्युक्त काल विभाजन की दृष्टि से दिगम्बर परम्परा के आगम युग के आचार्य कुन्दकुन्द तक ज्ञान, नय आदि का विवेचन पाया जाता है, परन्तु प्रमाण का विवेचन नहीं पाया जाता। कुन्दकुन्द ने शौरसेनी प्राकृतभाषा में लिखे अपने ग्रन्थों में सम्पूर्ण विवेचन हेय, उपादेय और ज्ञेय की दृष्टि से किया है। हेय और उपादेय के विवेचन के लिए उन्होंने निश्चय और व्यवहार नय का आश्रय लिया है तथा ज्ञेय दृष्टि से विवेचन हेतु द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक नय का आश्रय लिया है । श्वेताम्बर परम्परा के आगमों में ज्ञान के स्वतन्त्र विवेचन के साथ प्रमाण को भी स्वतन्त्र विवेचना की गई है। ज्ञान के मेव कुन्दकुन्द एवं उनसे पूर्व की आगमिक परम्परा में स्वभाव, विभाव, सम्यक्, मिथ्या आदि ज्ञान के प्रकारों की
SR No.010142
Book TitleTattvartha Sutra Nikash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRakesh Jain, Nihalchand Jain
PublisherSakal Digambar Jain Sangh Satna
Publication Year5005
Total Pages332
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size20 MB
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