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________________ डा से स्मृतिका अभाव हो जायेगा। स्मृति का अभाव हो जाने से व्यवहार के लोप का प्रसंग उपस्थित हो जायेगा। अतः स्पष्ट है कि प्रमाण और प्रमेव सर्वना भित्र नहीं है । परन्तु दोनों में कयचित् भिन्नपना भी है। जिस प्रकार बाह्य प्रमेवों से प्रमाण (घट से दीपक की तरह) भिन्न होता है उसी प्रकार प्रमेय से प्रमाण में कचित् मित्रता भी है। क्योंकि प्रमाण तो प्रमाण भी है और प्रमेव भी, जबकि प्रमेय केवल प्रमेव है। गय का - परस्पर विरुद्ध पक्षों वाली अनेक रूपात्मक वस्तु को किसी एक पक्ष से देखने वाली ज्ञाता की दृष्टि का नाम नय है। जब-जब वस्तु में धर्म-धर्मी का भेद होकर धर्म द्वारा वस्तु का ज्ञान होता है तब-तब वह ज्ञान नयज्ञान कहलाता है। इसी कारण नयों को श्रुतज्ञान का भेद कहा गया है। यद्यपि प्रमाण और नय दोनों से पदार्थों का ज्ञान होता है तथापि इतनी विशेषता अवश्य है कि प्रमाण सकलादेशी है जबकि नय विकलादेशी है। आचार्य पूज्यपाद ने कहा है- 'सकलादेशाः प्रमाणाधीनो विकलादेशो नयाधीन इति ।" तत्वार्थाधिगमभाष्य में नय का निरुक्त्यर्थ करते हुए कहा गया है- 'जीवादीन् पदार्थान् नयन्ति प्राप्नुवन्ति कारयन्ति साधयन्ति निवर्तयन्ति निमशिवन्ति उपलम्भयन्ति व्यञ्जयन्ति इति नयः । अर्थात् जो जीवादि पदार्थों को लाते हैं, प्राप्त कराते हैं, बनाते हैं, अवभास कराते हैं, उपलब्ध कराते हैं, प्रकट कराते हैं, वे नय हैं। तिलोयपण्णत्ती, आलापपद्धति, प्रमेयकमलमार्तण्ड आदि ग्रन्थों में ज्ञाता, प्रमाता अथवा वक्ता के अभिप्राय को नय कहा गया है।' आचार्य पूज्यपाद का कहना है कि अनेकान्तात्मक वस्तु में विरोध के बिना हेतु की मुख्यता से साध्यविशेष की यथार्थता को प्राप्त कराने में समर्थ प्रयोग को नय कहते हैं।' श्लोकवार्तिक में अपने को और पदार्थ को एकदेश रूप से जानना नय का लक्षण माना गया है।' आचार्य अकलंकदेव ने प्रमाण के द्वारा संगृहीत वस्तु के अर्थ के एक अंश को नय माना है।' आचार्य पूज्यपाद का कहना है कि वस्तु को प्रमाण से जानकर बाद में किसी एक अवस्था द्वारा पदार्थ का निश्चय करना तय है। श्लोकवार्तिककार के अनुसार श्रुतज्ञान को मूल कारण मानकर ही नयज्ञानों की सिद्धि मानी गई है।" नव के भेद तत्वार्थ सूत्रकार आचार्य उमास्वामी ने सात नयों का उल्लेख किया है - नैगम, संग्रह, व्यवहार, ऋजुसूत्र, शब्द, समभिरूढ एवं एवंभूत ।' · १. सर्वार्थसिद्धि 1/10 पृ. 20 २. तत्त्वार्थाधिगमभाष्य 1 / 35 ३. 'यो विनास हिदियभावत्वो ।' तिलोयपण्णत्ती 1 /83 'शातुरभिप्रायो वा नयः ।'-आलापपद्धति 9 'ज्ञातुरभिप्रायो नमः ।' प्रमेयकमलमार्तण्ड पृ.676 ४. 'वस्तुन्यनेकान्तात्मनयविरोधेन हेत्वर्पणात्साध्यविशेषस्य याथात्म्यप्रापणप्रवणः प्रयोगो नयः ।' ५. स्वार्थैकदेशनिर्णीतलक्षणो हि नयः स्मृतः । - तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 2/1/6/17 ६. तत्त्वार्थवार्तिक, 1/33/1पृ. 94 ७. सर्वार्थसिद्धि 1/6 पृ. 20 ८. मूला नयाः सिद्धाः । - तस्वार्थश्लोकवार्तिक 2/1/6/27 ९. 'नैगमसंग्रहव्यवहारसूत्रशब्दसमभिवंभूता नयाः । - तत्त्वार्थसूत्र 1 / 33 I - सर्वार्थसिद्धि 1 / 33 पृ. 140
SR No.010142
Book TitleTattvartha Sutra Nikash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRakesh Jain, Nihalchand Jain
PublisherSakal Digambar Jain Sangh Satna
Publication Year5005
Total Pages332
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size20 MB
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