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50 / तस्यार्थसू-निकव
triesों के अनुसार प्रामाण्य स्वतः और अप्रामाण्य परत: होता है ।' वेदान्तदर्शन की भी यही मान्यता है। कुछ बौद्ध अप्रामाण्य को स्वतः और प्रामाण्य को परतः मानते हैं, जबकि कुछ प्रामाण्य और अप्रामाण्य दोनों को किचित् स्वतः एवं कश्चित् परत: स्वीकार करते हैं।' न्याय-वैशेषिक दार्शनिक प्रामाण्य और अप्रामाण्य दोनों को परतः मानते हैं।"
जैन दार्शनिकों का कहना है कि उत्पत्ति की दशा में ज्ञान का प्रामाण्य एवं अप्रामाण्य दोनों स्वतः होते हैं तथा ज्ञप्ति की दशा में दोनों ही परतः होते हैं।' यद्यपि तत्त्वार्थसूत्रकार ने इस विषय में कोई उल्लेख नहीं किया है, किन्तु श्लोकवार्तिककार ने स्पष्टतया लिखा है -
अत्राभ्यामाप्रमाणत्वं निश्चितं स्वत एव नः । अनभ्यासे तु परतः इत्याहुः
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अर्थात् अभ्यासदशा में ज्ञान स्वरूप का निर्णय करते समय ही युगपत् उसके प्रमाणपने का भी निर्णय कर लिया जाता है, परन्तु अनभ्यासदशा में तो दूसरे कारणों से ही प्रमाणपना जाना जाता है। अभिप्राय यह है कि अभ्यासदशा में प्रमाण स्वतः और अनभ्यासदशा में प्रमाण परत: होता है। अप्रमाण के विषय मे भी यही स्थिति है ।
प्रमाण- प्रमेव आदि में कमवित् भेदाभेदपना
आचार्य पूज्यपाद ने पूर्वपक्ष के रूप में प्रश्न उपस्थित किया है कि यदि ज्ञान को प्रमाण मानते हैं तो फल किसे मानेगे ? फल का तो अभाव ही हो जायेगा। इसके उत्तर में वे कहते हैं कि यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि पदार्थ के ज्ञान हो जाने पर प्रीति देखी जाती है। यही प्रमाण का फल कहा जाता है। अथवा अपेक्षा या अज्ञान का नाश प्रमाण का फल है। " जो लोग सन्निकर्ष को प्रमाण मानते हैं वे पदार्थ के ज्ञान को फल मान लेते हैं, किन्तु पूज्यपाद का कहना है कि यदि सन्निकर्ष को प्रमाण माना जायेगा तो सूक्ष्म, व्यवहित और विप्रकृष्ट पदार्थों का ग्रहण नहीं हो सकेगा और इस प्रकार सर्वज्ञता का भी अभाव सिद्ध होगा । इन्द्रियों को प्रमाण मानने पर भी यही दोष उपस्थित होता है। चक्षु एव मन के अप्राप्यकारी होने से इन्द्रिय और सन्निकर्ष भी नहीं बन सकता है। सन्निकर्ष को प्रमाण और पदार्थ के ज्ञान को फल मानते हैं तो सन्निकर्ष दो में रहने वाला सिद्ध होगा और इस प्रकार तो घटपटादि पदार्थों के भी ज्ञान की प्राप्ति का प्रसंग उपस्थित हो जायेगा ।' अतएव सन्निकर्ष को प्रमाण नहीं माना जा सकता है।
जैनदर्शन के अनुसार प्रमाण और प्रमेय सर्वथा भिन्न नहीं हैं। जिस प्रकार घटादि पदार्थों को प्रकाशित करने में दीपक हेतु है और अपने को प्रकाशित करने में भी वही हेतु है। इसके लिए प्रकाशान्तर की आवश्यकता नहीं होती है। उसी प्रकार प्रमाण भी है। अतः प्रमेय के समान प्रमाण के लिए यदि अन्य प्रमाण माना जाता है तो स्व का ज्ञान नहीं होने
१. न्यायमक्षरी, भाग । पृ. 160-174
२. दृष्टव्य सर्वदर्शनसंग्रह, बीद्धप्रकरण
३. सत्यसंग्रह, कारिका 3123
४. व्यायमञ्जरी, पृ. 169 174
५. प्राणमीमांसा 1/1/8
६.
श्लोकवार्तिक, 3/1/10/126-127
७. सर्वार्थसिद्धि 1/10 पृ. 97
८. वही 1/10 पृ. 97 तथा तत्वार्थवार्तिक 1/10/16-22