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पाँचवाँ सर्ग
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जिस विधि की मैं हूँ वसुंधरा, बस आप उसी विधि मेंह मिले । है यही हेतु जो हमको ये दुर्लभ फल निस्सन्देह मिले ।।
होते निमित्त भर सिन्धु सीप, स्वयमेव पनपता मोती है। शिशु स्वीय पुण्य से बढ़ता है,
माँ गर्भ भार भर ढोती है । पर धार उदर में निजपति को, है मुझे अभी से मोद अहा । पर कहाँ समायेगा यह तब जब लँगी उनको गोद श्रहा ।।
वैसी पहिले है हुई नहीं, जैसी इन दिनों उमंग मुझे । हूँ लिये त्रिलोकीपति को पर, हलके लगते निज अङ्ग मुझे ।।
गुरु भार वहन यह जाने क्यों लघु लगता मुझ सुकुमारी को ? आलस्य नहीं वह, जो रहता-- है गर्भवती हर नारी को।