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पाँचवाँ सर्ग
है श्रेय आपको ही उसका, जो मिला महा सौभाग्य मुझे | आराध्य ! आपके श्राराधन-से मिले जगत् श्राराध्य मुझे ||
आपकी
श्रतएव
के लिये सदा
अनुकम्पा --
आभारी हूँ ।
प्रभो मेरे,
श्रापकी नारी हूँ |
यह प्राची सूर्य
कहाँ से दे,
प्रभात नहीं ।
होवे यदि स्वर्ण यदि रहे न सरसी में जल तो,
दे सकती वह जल जात नहीं ॥
नर हो आप मैं मात्र
बस, यही समझ नत करने दें, मुकको अपना यह भाल सदा । औ' दया दृष्टिनिज श्राप रखें,
मुझ पर हर क्षण भूपाल सदा ||
पुष्पाञ्जलि मुझे
चढ़ाने दें
अपने ममतामय
भावों की ।
इति करें कृपाल ! कदापि नहीं, अपनी कमनीय कृपाओं की ॥
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