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परम ज्योति महावीर
उस तिथि का वातावरण अतः हर जन को मोहन मन्त्र बना । हर प्रिय प्रेयसि से मिलने की अभिलाषा से परतन्त्र बना ।।
दिन पति के जाते ही नभ में, अवतरित प्रपूर्ण मयंक हुवा । शरदेन्दु-छटा की निधियों से, सम्पन्न मही का अङ्क हुवा ।।
हर प्रियतम अपनी प्रेयसि पर बिखराने अपना राग चला। निज प्रिय के दर्शन का कौतुकहर प्रेयसि में भी जाग चला ।।
'सिद्धार्थ नृपति ने भी सोचा, क्यों विफल आज की रात करूँ ? क्यों नहीं पहुँच कर अन्तःपुर, 'त्रिशला' से जी भर बात करूँ ?
क्षण में निश्चय कर रानी के श्रालय की ओर नरेश चले । मानो कि रमा से मिलने को उत्कण्ठित स्वयं रमेश चले ।।