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चौथा सर्ग
कोई प्रभात में लिये खड़ी, रहती थी मञ्जन दाँतों का । कोई भर नीलम-चषकों में, देती जल स्वर्ण-परातों का |
कोई उनके मृदु अङ्गों में, उत्तम उबटना लगाती थी। कोई बल वर्धक तैल लगा,
उनके कर चरण दबाती थी। कोई कञ्चन के कलशों के, जल से उनको नहलाती थी। कोई उनके मृदु पद तल भी, थो फूली नहीं समाती थी।
कोई कोमल अंगुलियों से उनकी केशावलि धोती थी। कोई दुकूल मट लेती थी,
कोई कञ्चुकी निचोती थी। कोई तन का जल में पोंछ नये, परिधान उन्हें पहिनाती थी। कोई द्रुत केश-प्रसाधन को, कंघी, दर्पण ले पाती थी॥