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परम ज्योति महावीर
जो अग्नि दहकती हुई दिखी, उससे भी होता ज्ञान यही । तप रूप अग्नि में वसु कर्मोंको होमेगी सन्तान यही ॥
यों मुझे तुम्हारे स्वप्नों का, जो अर्थ ज्ञान में श्राया है। वह विशद रूप से पृथक पृथक, भी मैंने तुम्हें बताया है ।।
अब फलीभूत ही समझो तुम, दम्पति-जोवन की आशा को। निज हृदय-देश से निर्वासनदे दो अविलम्ब निराशा को ।।
लो मान, हमारी चिन्ताओंका आज इसी क्षण अन्त हुवा ।। पतझड़ की अवधि समाप्त हुई, अब प्राप्त प्रशस्त बसन्त हुश्रा ।।
हे देवि ! तुम्हारा पुण्य महा, गर्भस्थित जो जिनदेव हुये । वह मुक्ति तरसती है जिनको, वे प्राप्त तुम्हें स्वयमेव हुदै ।।