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तीसरा सर्ग
पर नहीं आज तक कभी मुझे, निज श्रात्म रूप का बोध हुश्रा । शुभ अशुभ प्रास्रवों के आने, में कभी न गति-अवरोध हुवा ।।
बढ़ सकी मुक्ति की ओर नहीं, परित्याग मोह के बन्धन को। इंधन हित रही जलाती हा! मैं सदा मलयगिरि चन्दन को ।।
यों अपनी ही जड़ता से चारोंगतियों के मध्य भटकती हूँ।
औ' पाप-पुण्य के तरुनों केविषमय मधुमय फल चखती हूँ।
जो पाप-पुण्य से रहित हुये, सचमुच वे ही बड़ भागी हैं। जिनने विषयाशा को त्यागा वे ही तो सच्चे त्यागी है।
मैं भी सब बन्धन त्याग सकूँ, भगवन् ! इतना सौभाग्य मिले । अब तक हर भव में राग मिला अब परभव में वैराग्य मिले ॥"