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परम ज्योति महावीर
यों आत्म शुद्धि के लिये स्वयं, बैराग्य भावना भातों' थीं। डूबीं थीं इतनी भावों में, प्रतिमा सी शान्त दिखातीं थीं ।।
इस श्रात्म-चिन्तवन में उनको अनुपम आत्मिक अनुभूति हुई । यों लगा कि जैसे करतल गत, शुद्धात्मानन्द विभूति हुई ।।
'मैं 'कुण्ड प्राम' की महिषी हूँ', यह भी वे क्षण को भूल गयीं। अविकार सिद्ध की मुद्रा भी उनके नयनों में झूल गयी ॥
निज पूर्व सुनिश्चित क्षण में फिर, क्रमशः यह चिन्तन भंग हुवा । रानी का उठना, सखियों का
आना दोनों ही संग हुवा ।। 'सिद्धार्थ-वल्लभा' को कोईभी वस्तु पड़ी न मँगानी थी। उनकी हर प्रकृति सदा से ही, हर दासी की पहिचानी थी।