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ये शब्द दासियों के सुनकर, 'त्रिशला' को प्रति श्रानन्द हुवा | वे उठीं, वहाँ की दीपावलि - का शुचि प्रकाश भी मन्द हुवा ||
फिर खोला द्वार शयनगृह का, दासी को नहीं पुकारा भी । पर हुई उपस्थित, आायीं होंज्यों खिंचकर चुम्वक द्वारा ही ॥
श्री शीघ्र किसी ने फेंक दिये, शय्या के बासी फूल सभी । दी पोछ किसी ने
प्रत्येक वस्तु की
कौशल से,
धूल सभी ॥
परम ज्योति महावीर
सब सावधान थीं, रानी कोहो सकी न किंचित् भी बाधा | जब कक्ष स्वच्छ हो गया तभी, उनने सामायिक को साधा ॥
वे लगीं सोचने, 'भववन में, निज जन्म अनन्त विताये हैं । कर्मों के वश में रह मैंने, अगणित दुख भार उठाये हैं ||