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परम ज्योति महावीर
वे स्वप्नों की मोहकता से, मन में फूली न समातीं थीं । थे नयन मुंदे पर अधरों से, वे मन्द मन्द मुसकातीं थीं।
कारण, विलोक वह स्वप्नावलि, निज अहोभाग्य ही माना था। नारी की महिमा गरिमा को, उनने उस ही दिन जाना था ।।
हर सुमन एक से एक रुचिर, देखे स्वप्नों की माला में । उसके उपरांत न जागा वह सौभाग्य किसी नव बाला में ||
जाने कितने ही पुण्यों के फल से उनको यह योग मिला । जो दुर्लभ है इन्द्राणी को, उनको वह पावन भोग मिला ||
आश्रो, हम भी लें देख उन्हें, 'त्रिशला' जो स्वप्न निरखती थीं। जिनकी कमनीय कसौटी पर वे अपना भाग्य परखती थीं ॥