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तीसरा सर्ग
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पष्ठी का चन्द्र नभाङ्गण में, चुपचाप दीप सा जलता था। अतएव न उसकी किरणों से भूमण्डल का तम गलता था ।
ध्रुवतारा सिवा सभी तारोंकी प्राभा घटती जाती थी। जो अपनी भावी मनोव्यथाका ही सङ्कत बताती थी।
रजनी को बिदा कराने को, अब आने वाली डोली थी। अतएव न उसको सूझ रही, अब कोई और ठिठोली थी॥'
छा गयी पूर्ण नीरवता थी, कोई भी स्वर न सुनाता था। मारुत भी मौन हुवा, तरु केपल्लव तक वह न हिलाता था ।
शय्या पर 'त्रिशला' लेटी थीं, श्रानन पर कान्ति निराली थी। शिर से अञ्चल था सरक चुका, बिखरी केशावलि काली थी।