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पर सेवक धर्म न उसकी इस
सका ।
भावुकता को भी देख जो कभी न अपने से गुरुतर, ममता, माया को लेख
सका ||
उसने,
पा
कर्तव्य - प्रेरणा को किंचित भी तो देर नहीं ।
प्राङ्गण में रत्नों की वर्षा द्रुत करने लगा कुबेर वहीं ॥
'ऐरावत' की ही शुराड सदृश, गिरती थी रत्नों की धारा । वह दृश्य विषय था नयनों का, कथनीय नहीं शब्दों द्वारा ||
परम ज्योति मोर
वह रत्न राशि जिस समय वहाँ, आती थी अम्बर से नोचे । लगता, त्रिशला के श्राशा-वन, रत्नों से जाते हों सींचे ॥
या 'अच्युतेन्द्र' के श्राने को सोपान लगाया जाता हो । अथवा अम्बर से श्रवनी तक परिधान चिछाया जाता हो ॥