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दूसरा सर्ग
तत्काल स्वर्ग से भूतल को, मारुत गति से अलकेश चला । • नभ पथ में लगा सुरेश्वर काही मूर्ति मान श्रादेश चला ॥
'भारत' के पावन अम्बर में, श्राते ही प्रथम 'विदेह' दिखा ।
पश्चात् दिखा वह 'कुण्ड ग्राम'
• तदनन्तर भूपति-गेह दिखा ॥ यह देख प्रदक्षिण देने को, त्रय बार चतुर्दिक वह घूमा । सिद्धार्थ-सौध का शिखर पुनः उसने अति श्रद्धा से चूमा ।।
यो क्षण भर आत्म विभोर रहा, औ, उसे न कुछ भी चाह रही उसकी जीवन की श्वास श्वास, थी अपना भाग्य सराह रही ॥
कर सुखद कल्पना भावी की, होता था उसको तोष नहीं । क्षणभर कर्तव्य न पाला पर इसमें था उसका दोष नहीं ।