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पहला सर्ग
उत्साहित
होकर उत्सव से,
हर धार्मिक पर्व मनातीं थीं ।
सत्पात्र दान का अवसर पा वे फूली नहीं
समाती थीं ॥
प्रिय सरल वेष था उनको, वे
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esम्बर अधिक न रखतीं थीं । तो भी स्वाभाविक सुषमा से, वे विश्व सुन्दरी लगतीं थीं ॥
रखतीं सदैव यह ध्यान, किसीसे कोई दुर्व्यवहार न हो । मन-वचन-कर्म से कभी किसीका कोई भी अपकार न हो ॥
उपहास कदापि न
वे गूँगे, लँगड़े,
कल्याण मनाया
भव-वन में भटके
यदि पति का शिर भी दुखता तो, उपचार स्वयं वे करतीं थीं । उनको सप्रेम खिला कर ही, आहार स्वयं वे करती थीं ॥
करतीं थीं, लूलों का । करतीं थीं,
भूलों का ||
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