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स्वस्थ वे रहतीं थीं,
सर्वदा होता न उन्हें था रोग कभी । अतएव न करना पड़ता था, श्रौषधियों का उपयोग कभी ||
मन का सहवास न तजता था, संयम में भी उल्लास कभी । अधरों का वास न तजता था, निद्रा में भी मृदु हास कभी ||
तुल्य गहन,
यद्यपि थीं दर्शन पर लगतीं सरस कहानी सी । तत्काल अपरिचित लगने लगतीं पहिचानी सी ॥
दर्शक को
परम ज्योति महावीर
उनको था अन्य न कोई भय, केवल पार्पो से डरतीं थीं ।
वे श्रार न कुछ भी हरतीं थीं, बस प्रियतम का मन हरतीं थीं ॥
धरतीं थीं,
डग नहीं एक भी प्रिय इच्छा के प्रतिकूल कभी । किंचित् भी देर न करतीं थीं, निज धर्म- क्रिया में भूल कभी ॥