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प्रस्तावना . .
जिनका यह पौरुष देख स्वयं, अभिमानी के भी भाल झुके । जिनका यह साहस देख स्वयं, सेनानी के भी भाल झुके ।।
जिनकी मुद्रा में अङ्कित थे, जग के सब प्रश्नों के उत्तर । जिनके नयनों से बहता था, करुणा का अमृतमय निर्धार ।
जिनकी दृढ़ता को देख चकितथा अम्बर तल का ध्रुवतारा । जिनकी पावनता से चिन्तित , रहती थी गङ्गा की धारा ।।
जो चित्र 'निजरा' का लिखतेथे लिये तपस्या की तूली । इतना भी ध्यान न देते थे, कब आयी ऊषा गोधूली !
जिनके वचनों में 'सत्य' बसा, भावों में 'शिव' तन में 'सुन्दर' । जिनकी सेवा में शान्ति स्वयं, तल्लीन रही नित जीवन मर ।।