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प्रस्तावना
जिनने न कभी उलझाये हंग, नारी के श्यामल केशों में। जिनने न कभी उलझाये दृग, उनके अंचल के रेशों में ॥
जिनने न कभी भी रास रचाजिनने न कभी होली खेली। जिनने न कभी जल क्रीड़ा की,
जिनने न कभी की रैंगरेली ॥ जिनने फागुन की रातों में, गाये उन्मादक गान नहीं । जिनने सावन की संध्या में, छेड़ी वंशी की तान नहीं ॥
जिनका परिचय तक हो न सका, रागोद्दीपक श्रृंगारों से । जो रहे अपरिचित आजीवन,
श्रालिंगन से अभिसारों से ॥ भोगों की गोदी में पल भी, जिनका मन बना न भोगी था। योगों के साधन से वञ्चितरह भी जिनका मन योगी था ।