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उन्नीसवाँ सर्ग
तुम दुग्ध देख कर कर लेते, उसमें घृत का अनुमान यथा । सक्रिय शरीर से कर सकतेहो अात्मा की पहिचान तथा ॥
आशा है, समझ गये होंगे, है नहीं द्रव्य जड़ मात्र यहाँ । कर्माणुलिप्त यह चेतन ही, होता सुख दुख का पात्र यहाँ ॥
जब तक न कर्म हो जाते हैं, सम्पूर्णतया निर्मूल यहाँ । तब तक होता है पुनर्जन्म, निज कर्मों के अनुकूल यहाँ ।।
सुन 'वायुभूति' को जीव तत्व, भासित होने प्रत्यक्ष लगा । श्री 'वीर'-कथन निर्दोष लगा, दूषित अपना वह पक्ष लगा ।
अतएव उन्होंने भी समस्त, प्रारम्भ परिग्रह त्याग दिया । यों बने तीसरे गणधर वे, औ' स्वीय दुराग्रह त्याग दिया ।