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________________ परम ज्योति महावीर यह सुन कर प्रभुवर उसी समय, हित मित प्रिय स्वर में बोल चले । श्रागम के गूढ़ रहस्यों को, अति सरल कथन से खोल चले ॥ अस्तित्व तेल का ज्यों तिल से, होता तुमको प्रतिभात पृथक् । बस त्यों ही समझो वायुभूति, है जीव पृथक् औ' गात पृथक् ।। मैं सुखी और मैं दुखी श्रादि, जो करा रहा है मान तुम्हें । यह नहीं देह का कार्य, जीवही करा रहा यह ज्ञान तुम्हें ॥ यदि तुम मानोगे जो कुछ है, वह है केवल जड़ 'भूत' यहाँ । तो कोई भी वैचित्र्य नहीं, हो सकता है उद्भूत यहाँ ॥ कारण कि 'भूत' कुछ भी करनेमें अपने आप समर्थ नहीं । ये बिना नियोजक चेतन के, कर सकते अर्थ अनर्थ नहीं ।
SR No.010136
Book TitleParam Jyoti Mahavir
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhanyakumar Jain
PublisherFulchand Zaverchand Godha Jain Granthmala Indore
Publication Year1961
Total Pages369
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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