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उन्नीसवाँ सर्ग .
यह समाचार सुन 'वायुभूति'ने शिष्यों सँग प्रस्थान किया । प्रभु-शान-परीक्षा करना अब, उनने भी मन में ठान लिया ।
पर समवशरण में आ ज्यों ही, देखा प्रभु का अम्लान वदन। त्यों समझ लिया ये प्रभुवर हैं, सचमुच में केवल शान-सदन ॥
वे प्रश्न पूछने को ही थे, इतने में दिया सुनायी यह । "हे जीव देह से भिन्न, बातक्या नहीं समझ में श्रायी यह ॥
सुन 'वायुभूति' ने कहा-प्रभो। मैं समझ न यह हो पाता हूँ। अतएव आपको मैं अपनी, शङ्का का सार बताता हूँ ॥
कैसे है तन से भिन्न जीव ? श्राती न समझ में बात यही । औ' पुनर्जन्म होता कि नहीं, शङ्का रहती दिन रात यही ।।