________________
परम ज्योति महावीर
जो भी सुनने को मिला, हुवा--- उससे अतिशय सन्तोष उन्हें । वे लगे मानने मन ही मन अब विश्व ज्ञान का कोष उन्हें ।।
फिर सोचा, बिना कहे मेरी
शङ्का को ये साधार अभी। निर्मूल करें तो मैं इनको सर्वज्ञ करूँ स्वीकार अभी ।।
यों अभी सोचते थे, इतनेमें ही तो दिया सुनायी यह । "हे गौतम ! तुमने निज शङ्का अब तक क्यों व्यर्थ छुपायी यह ।।
इस आत्मा के अस्तित्व-विषय में रहती शङ्का नित्य तुम्हें । जो जीव नित्य अविनाशी है वह लगता क्षणिक अनित्य तुम्हें ।।
ज्यों ही 'गौतम' ने प्रभु-मुख से यह उत्तर सुना अनूठा था। त्यों समझ गये, जो समझा था-- मैने, वह सब कुछ झूठा था ।